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सापेक्षवाद के अनुसार भू-भ्रमण केवल सुविधावाद १०६ घोंसले को छोड़कर आकाश में उड़ने वाले पक्षी एक अवधि के पश्चात् अपने घोंसले पर कैसे आ जाते हैं ?" श्री लल्लाचार्य लिखते हैं—“यदि पृथ्वी घूमती है तो पक्षी गण अपने घोंसलों पर कैसे आते है ? आकाश में फेंके जाने वाले बाण विलीन क्यों नहीं हो जाते या पूर्व और पश्चिम में वे विषम गति क्यों नहीं रखते हैं ? यदि पृथ्वी की गति मन्द है इसलिये ऐसा होता है तो केवल एक दिन-रात में उसका परिभ्रमण कैसे हो जाता है ?" श्रीपति कहते है-"यदि पृथ्वी तीव्र वेग से घूमती होती तो उस पर इतनी प्रचण्ड वायु चलती कि जिससे प्रासाद, पर्वत की चोटियाँ आदि कुछ भी पदार्थ नहीं ठहर सकते और समस्त ध्वजाएँ सदा के लिये पश्चिम-गामिनी होतीं।" ।
स्थिरवादियों ने चरवादी सिद्धान्तों का जैसे खण्डन किया उसी प्रकार चरवादियों द्वारा दिए गए तर्कों का भी उन्होंने विभिन्न दृष्टिकोणों से समाधान किया। जब उनके सामने यह तर्क आया कि पृथ्वी आकाश में निराधार स्थित कैसे है, तब उन्होंने बताया-जैसे सर्य और अग्नि में उष्णता, चन्द्रमा में शीतलता, जल में द्रवता, प्रस्तर में कठोरता, पवन में चरता स्वाभाविक है, उसी प्रकार पृथ्वी स्वभावतः अचला है, क्योंकि वस्तु शक्ति विचित्र हुमा करती है ।" जैनाचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में भू-भ्रमण के सिद्धान्त को अप्रमाणित सिद्ध करते हुए लिखते हैं-"भू-भ्रमण का सिद्धान्त प्रत्यक्ष बाधित है, क्योंकि हर एक व्यक्ति को पृथ्वी की स्थिरता का ही अनुभव होता है । स्थिरता की अनुभूति सर्व देश काल में समस्त पुरुषों को समान रूप होने से भ्रान्तियुक्त नहीं कही जा सकती। अनुमान प्रमाण से भी भू-भ्रमण का कोई निश्चय नहीं होता, क्योंकि उस प्रकार का कोई भी अविनाभाव लक्षण हमें दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। यदि ऐसा कहा जाये कि तारक समूह स्थिर है फिर भी पृथ्वी पर दिन-रात, उदय-अस्त आदि काल-भेद
१. यदि च भ्रमति क्षमा तदा स्वकुलायं कथमाप्नुयः खगा: ?
इषवोऽपि नभः-समुज्झिताः निपतन्तः सुखाम्पतेर्दिश ॥४२॥ पूर्वाभिमुखे भ्रमे भुवो बहणाशाभिमुखो ब्रजेदुघनः । अथ मंदगमात्तदा भवेत्कथमेकेन दिवा परिभ्रमः ॥४३॥
-शि० वृ० गोलाध्याय। २. भूगोल वेग जनितेन समीरणेन प्रासाद भूधर शिरांस्यपि सम्पतेयुः ।
भूगोल वेग जनितेन समीरणेन केत्वादयोप्यपर दिग्गतयः सदा स्युः।। ३. यथौष्णतानिलयोश्च, शीतता विधौ, द्रुतिः के, कठिनत्त्वमश्मनि । मरुच्चलो, भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रा बत ! वस्तु-शक्तयः ॥
-सिद्धन्त-शिरोमणि, गोलाध्याय, श्लोक ५।
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