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सम्मत्त-बीय-लभो णाम पढमो अवसरो तत्थ य धनदेवगुणवईण पुव्वजम्मवुत्ततो
सयल-कामुयाण न कोवि तीए सह संवसइ। जाया अणायार-ट्ठाणं अणंगसुंदरी। मग्गिऊण ठाणे कयाणि वत्थाहरणाणि, समप्पियं दंडी-खंड कराविज्जइ कुकम्माणि ।
तओ विसण्ण-चित्ताए चितियमणंगसंदरीए-एसो सो गंडस्सोवरि पिडगुब्भेओ। एगं ताव वेसाकूले उप्पत्ती, बीयं पुण दारुणं दोहग्गं । ता मरणमेवमह संगय" ति चितिऊण निग्मया नियमंदिराओ। गया नगरुज्जाणे ठिया वड-पायवस्स हेट्ठओ। निरूविऊण दिगंतराणि बद्धो कंधराए उत्तरिज्जेण पासओ। एयावसरे समागओ पओयणवसेण सुभंकरो नाम
णिया तेण-"भद्दे ! का तुमं ? कि वा करेउमारद्धा?" तीए भणियं-"भयवं! अणंगसुंदरी नाम वेसासुया। दोहग्ग-दोस-दूसिया एवं मरणमज्झबसिया।" साहुणा भणियं-“धम्मसीले! निदिओ सयलसत्थेसु अप्पवहो। नत्थि गई अप्पघायगाणं। दूरे सोहग्ग।" अणंगसुंदरीए भणिवं-“ता किं करेमि?" साहुणा भणियं-“भद्दे ! दारिद्दोवहयाणं, उच्छण्ण-वंसाणं, विविह-वसण-पीडियाणं, दूसह-दोहग्म-दुमियाणं, धम्मो चेव सरणं सव्वसत्ताणं । ता करेहि किपि धम्माणुट्राणं जेण जम्मतरे वि नेवंविह-दुक्खाण भायणं भवसि।" 'जं भयवं समाणवेई' वंदिऊण मणिवरं गया सभवणं । भद्दग-भाव-परिणया कालं गमेइ।
अण्णया कद्राण निमित्तं कतारं गया। डक्का भयंगमेण। केण वि अकय-पडियास सकम्म-सहाया मरिऊण समुप्पण्णा तत्थेव नयरे सोमिलस्स माहण]स्स सोमाए भारियाए कुच्छिसि धूयत्ताए । उचियसमए पइट्टावियं नाम सोमसिरी। पत्ता जोब्वणं परिणीया इंदसम्ममाहण-सुएण इंददत्तेण। पुवकय-कम्माणुभावेण अणिट्ठा तस्स वि नो सहइ सो तीसे दंसणं पि, दुरे संवासो।
तओ भणिया सा जणणि-जम्मएहि "बच्छे! सघर-संठिया चेव किंपि कुसलाणुट्टाणं करेसु जेण जम्मंतरे वि नेवंविहदुवखाण भायणं भवसि।" पडिवन्नमेयं तीए तहेव कूणमाणीए वच्चंति वासरा। अण्णम्मि दिणे जायं साहणीहिं सह दसणं। नीया ताहिं जिनमइमहत्तरा समीवे। पणमिऊण पवत्तिणि निसण्णा उचियासणे। पारद्धा भगवईए धम्मदेसणा। भणिया य “भद्दे ! धम्मत्थिणा पढममेव सुपरिक्खियाणि काऊण मुरु-देव-धम्मतत्ताणि गहेयव्वाणि । जओकुगुरु-कुदेव-कुधम्म-रय-मणितुट्ठा हिंडप्ति । अप्पओ मोहमोहिया मुटुं न वि जाणंति ।। १६४ ।। देव-गुरु-धम्मतत्तं, जाणिज्जइ गुरुजणेण उवटु । ता तस्सव परिक्खा, पढनं चिय होइ कायव्वा ॥१६५।। धम्मट्ठियाण धम्म, कहेहि अगिलाए परहिएक्करो । खम-दमजुत्तो गुत्तो, सव-निरओ सील-संपत्तो।१६६। निज्जिय-विसयकसाओ, जिइंदिओ सथल-सत्त-हिथकारा । घर-घरिणि-संग-रहिओ, निस्संगो निम्ममो य गुरु।। एवंविहगुणरहिए, गुरुम्मि गुण-गोरवं कुणंतहि । अहह! अयाणथलोएहि, पेच्छ अप्पा वि वेलबिओ ।।१६८।। रमणीय-रमणि-संगह-गहगहिओ जो न नियइ सवियारं । न वि जंपइ वयणाई, सिंगारागारभूथाई ॥१६९।। इंदिय-चोर-चडक्क-पहओ अपहम्मि न य पवत्तेइ। मुक्काउहो महप्पा पसंत-मुत्ती विगय-मोहो ॥१७०॥ केवलनाण-दिवायर, पथडिय-नीसेस-वत्थु-परमत्थो। समसत्तु-मित्त-चित्तो, जो भयवं सो जए देवो ॥१७१।। पुव्वावराविरुद्धो, ताडण-कस-च्छेथ-सावभेएहि । विहि-पडिसेह-पहाणो, धम्मो धम्मत्तणमुवेइ ।।१७२।। जीवाईए भावे बहुभेए जो भणेइ सो भावो । बाहिर-किरिया-सुद्धो छेओ छेएहिं निद्दिट्ठो ॥१७३।। विहि-पडिसेहाणुगयं झाणं झरगाइ संगयं सुद्धं । जन्मणुट्टाणं सोहइ कसो त्ति कहिओ बुहजमेहिं ॥१७४।। धम्म-सुवण्ण-परिक्खा सम्मं धम्मथिएहि काथव्वा । इहरा मूढताओ न कज्जसिद्धी जओ भणियं ।।१७५।। "अपरिक्खियरयणतियं गहिऊण कुणंतु सुगइसुहआसं । विणु सुत्ति मग्गंत पड भुल्ला लोय हयास ।।१७६॥" देव-गुरु-धम्मतत्ते तम्हा सुवियारिऊण जो लेइ । सो संसार-समुन्भव-दुक्खाण जलंजलि देइ ॥१७७।। वच्छे ! मिच्छत्ततमंधयारमंधाण-पसु-सरिच्छाण। जच्चंधाण व दुलहो जिणधम्मो रवि-पथासो व्व ।।१७।।
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