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पर जन्म में कितना दुःख उठाना पड़ता है तथा इन पापस्थानों के सेवन से जीव किस प्रकार नरक तिर्यचादि गति में परिभ्रमण करता है उसे अलग-अलग दृष्टान्त देकर समझाया है। साथ ही सम्यक्त्व पूर्वक श्रावक के बारह व्रतों के पालन से तथा धर्म के चार अंग दान, शील, तप और भावना से जीव किस प्रकार दुःखों का अन्त करता है और जन्म-मरण के बन्धन
: अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है उसे भी अलग-अलग उदाहरणों से समझाया है। यह निर्विवाद है कि यह विशाल ग्रन्थ करीब ७६ लौकिक और लोकोत्तर कथा उपकथा एवं पुनर्भव कथा से युक्त एक कथाकोष सा बन गया है।
___अन्तत: आचार्यश्री पाठकों के मन में यह भाव प्रतिष्ठित करना चाहते हैं कि भव संसार आवागमन या जन्ममरण से छूटने का एक मात्र साधन मोक्ष है। जिसे निष्काम भावना से मनोरमा साध्वी ने प्राप्त किया। हमें भी उसी के पथ पर चलकर यही प्राप्त करना होगा तभी हम सुखी बन सकते हैं। ग्रंथकार :
मनोरमा कथा के कर्ता श्री वर्द्धमानसूरि के जीवन पर प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री हमें नहीं मिली । केवल मनोरमा कथा की एवं आदिनाथ चरित्र की प्रशस्ति में ग्रन्थ रचना संवत, रचना स्थल तथा उनकी गुरु परम्परा ही मिलती है। वह इस प्रकार है
भगवान वर्द्धमानस्वामी के पंचम गणधर चौदहपूर्व के ज्ञाता सुधर्मास्वामी थे। उनके शिष्य जम्बू स्वामी और उनके शिष्य प्रभवस्वामी जो अत्यन्त प्रभावशाली थे मनक पिता परमर्षि शय्यम्भवाचार्य थे। इसी परम्परा में आर्य वज्रस्वामी हुए । उन्हीं की शाखा में चन्द्रकुलीन अप्रतिबद्धविहारी, सौम्य लोगों के मन को आनन्द देने वाले श्री वर्द्धमानसूरि हुए । उनके दो अद्वितीय शिष्य थे एक का नाम था जिनेश्वरसूरि और दूसरे का नाम बुद्धिसागर सूरि । दोनों सहोदर भ्राता थे। और साक्षात् बृहस्पति के अवतार थे। इनके द्वारा रचित व्याकरण, छंद, निघण्टु, तर्क नाट्य कथा आदि प्रबन्ध ग्रन्थों को बुद्धिमान लोग बड़ी प्रसन्नता से पढ़ते पढ़ाते हैं। उनके शिष्य थे अभयदेवसूरि । इन्होंने नौ अंग पर टीका की रचना की । इन्हीं के पट्टधर शिष्य प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता वर्द्धमानसूरि हैं । धंधुका में महल श्रेष्ठी के पुत्र वेल्लक श्रेष्ठी रहते थे। उसकी पत्नी का नाम वेली था । यह मोढवंशीय कपद्धि श्रेष्ठी की पुत्री और साक्षात धर्म की मूर्ति थी। इन्हीं की वसती में रहकर इन्होंने संवत ११४० में आश्विन कृष्णा प्रतिपदा के दिन सोमवार को घनिष्ठा नक्षत्र के योग में प्रातः इस ग्रन्थ की रचना पूर्ण की।
श्री वर्द्धमानसूरि के गरुभ्राता विमलगणी जो ग्रन्थ लेखन में एवं लिखाने में बड़े कुशल थे इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना में सहायता की। इस ग्रन्थ का श्लोक प्रमाण १५००० है।
इसके अतिरिक्त इन्हीं आचार्यश्री ने वि. सं. ११६० में खंभात में ११००० श्लोक प्रमाण प्राकृत में आदि जिन चरित्र की रचना की और उसका प्रथम आदर्श पार्श्वचन्द्र मुनि ने लिखा। अपने संस्कृत में वि.सं. ११७२ में धर्मरत्न कारंड टीका नामक ९५०० श्लोक प्रमाण ग्रन्थ की रचना की। इसका संशोधन मुनि अशोकचन्द्र, मुनि धनेश्वर, मुनि पार्श्वचन्द्र एवं नेमिचन्द्र ने किया। इस ग्रन्थ को पं. हीरालाल हंसराज ने सं. १९९५ में पत्रकार में प्रकाशित किया है। ऋण स्वीकार व आभार दर्शन :
भाषाविद् एवं प्राकृत भाषा साहित्य के उद्भट विद्वान परम आदरणीय पू. एच. सी. भायाणी साहब ने मनोरमा कथा को आद्योपान्त देखा और उसे परिमार्जित किया। साहित्य निर्माण में सदैव दत्तचित्त रहते हुए भी आपने अपना बहुमूल्य समय इस ग्रन्थ के संशोधन में दिया । यदि उनकी सहायता नहीं मिलती तो मुझ जैसा अज्ञ इतना बड़ा साहस नहीं कर सकता। मैं उनकी इस महती कृपादृष्टि के लिए चिर ऋणी हैं।
साथ ही इस ग्रन्थ का अन्तिम प्रूफ लालभाई दलपतभाई विद्या मन्दिर के भू. पू. अध्यक्ष एवं महान् दार्शनिक पू. दलसुखभाई ने देखा और अनेक भूलों का परिमार्जन किया। अध्यक्ष डॉ. श्री नगीन भाई की इस ग्रन्थ के प्रकाशन में प्रेरणा मिली । यदि इनकी प्रेरणा नहीं मिलती तो यह ग्रन्थ अप्रकाशित ही रहता अतः मैं उनका भी हार्दिक आभारी हूँ।
रूपेन्द्रकुमार पगारिया
अहमदाबाद
(सोलह)
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