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करना, मार्ग में आने वाली कन्याओं को तांत्रिक अपहरणकारों से बचाकर माता पिता की सम्मति से उनके साथ विवाह करना, वनप्रदेश में शबरों के आक्रमण का वीरतापूर्वक मुकाबला करना, अन्त में धर्माचार्य से पूर्वजन्म का वृत्तान्त श्रवण कर प्रव्रजित होना और कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त करना आदि घटनाएं प्रायः सभी प्राचीन चरित ग्रन्थों में मिलती हैं । आचार्यश्री इन्हीं कथा-घटकों की सहायता से मनोरमा जैसे नये पात्र की कल्पना कर उसे एक स्वतंत्र कथा के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित करते हैं ।
यह तो हुई मूलकथा की बात । अवान्तर कथाओं व प्रसंगों में भी ऐसे अनेक स्थल हैं जिनके मूल उत्स आगम एवं आगमेतर कथा ग्रन्थों में मिलते हैं। जैसे चन्दनबाला का उदाहरण आवश्यक चूर्णि में, आषाढाचार्य का उदाहरण उत्तराध्ययन ( शान्त्याचार्य टीका) में एवं प्रवचन प्रभावना पर दिया गया आर्य खपुट का उदाहरण आवश्यकचूर्णि एवं निशीथचूर्णि में मिलता है ।
मनोरमा कथा की कुछ कथाओं का संक्षिप्त रूप धर्मरत्नकरंड टीका में मिलता है यह ग्रन्थ श्री वर्द्धमानसूरि ने सं. १९७२ में संस्कृत में रचा । वसुसारश्रेष्ठी की कथा का संक्षिप्त रूप 'धर्मरत्न प्रकरण' में मिलता है । ये कथाएँ उपरोक्त ग्रन्थों में साधारण रूप से वर्णित है। श्री वर्द्धमानसूरि ने मनोरमा कथा में इन्हें साहित्यिक पुट देकर विशेष आकर्षक एवं प्रभावशाली बनाया है। साथ ही मनोरमा चरित में जिन लोककथाओं का प्रणयन किया वे आज भी लोककथाओं के रूप में भारत के सभी प्रदेशों में सुनी और सुनाई जाती है। शुभाशुभ शकुन पर मुग्धवाणिज्य का दृष्टान्त, वाणी की कटुता एवं मधुरता पर अमृतमुखा और कटुभाषिणी स्थविरा का उदाहरण, अपशब्द से परहेज रखने वाला अनक्खबहुल कुम्भकार का उदाहरण, सब बिमारी की एक दवा करने वाले मूर्खवैद्य का उदाहरण, पाखण्ड के बल पर श्रेष्ठी पुत्री के साथ विवाह करने वाले शिवानन्द अध्यापक एवं बन्दर का उदाहरण, अविचारी राजा और निर्बुद्धि मंत्री का उदाहरण, लाखमूल्य, अमूल्य एवं कोडीमूल्य मानव अस्थिपंजर का उदाहरण एवं विविध प्रकार की धूर्तविद्या से लोगों को ठगने वाले कतिपय धूर्तों के उदाहरण इस बात के साक्षी है ।
समस्त चरितग्रन्थ में मूल कथानक अत्यल्प है। उनमें कोई नवीनता दृष्टिगोचर नहीं होती । समस्त ग्रन्थ उपकथाओं एव वर्णनों से भर दिया गया है । हा, कुछ उपकथाएं ऐसी है जो हम पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं पाते जैसे आठ प्रकार की जिनपूजा पर दिये गये उदाहरण । इसे हम आचार्य की नई सूझ कह सकते हैं । इतना होते हुए भी आचार्यश्री ने नगर वर्णन, समुद्र यात्रा वर्णन, उद्यान वर्णन, शकुन, स्वप्न, स्त्री-पुरुषों के लक्षणों का वर्णन, सरोवर वर्णन, मलय-गिरि वर्णन, विमान यात्रा वर्णन, चैत्य वर्णन राजप्रसाद वर्णन युद्धयात्रा एवं युद्ध वर्णन, प्रकृति एवं ऋतु वर्णन, राजकुमार एवं राजकुमारियों के रूपवर्णन वियोग वर्णन आदि वर्णनों को बड़े-बड़े समासबद्ध शब्दों से सजीव चित्रित कर मनोरमा चरित्र को एक उच्चकोटि के साहित्य की कक्षा में आसीन कर दिया है। साथ ही कथोपकथाओं के प्रसंग में आचार्यश्री ने तत्कालीन भारतीय लोक जीवन का यथार्थ स्वरूप उपस्थित किया है । धनिक और गरीबों का पारिवारिक जीवन, स्त्री और पुरुषों के अन्धविश्वास, दैवी अराधना से पुत्रोत्पत्ति, सास बहू का कलह, राजसभाओं में वाद-विवाद, मंत्र तंत्र जादू टोने भूत पिशाचों विषयक मान्यताएँ, रसायन के द्वारा स्वर्ण बनाने के प्रयत्न, चर्चरी प्रगीत आदि के साथ पर्वत यात्रा, जमीन में गड़े हुए धन का पता लगाना, परिवार की दारिद्र पूर्ण स्थिति, चोरों के उपद्रव, सामान्य अपराध के लिए भी राजाओं द्वारा शूली चढ़ाना, ठग विद्या, धूर्तों द्वारा प्रयुक्त विविध ठगने के उपाय, स्त्रियों का अपहरण, द्यूत, युद्ध, खेती वणिज व्यापार सतीप्रथा, इन्द्रजाल द्वारा लोगों को चमत्कृत करना, नरबलि पशुबलि द्वारा देवकृत महामारी को दूर करने विषयक लोगों के अन्धविश्वास आदि लौकिक विषयों से सम्बन्ध रखने वाले अनेक रोचक आख्यानों का सजीव चित्रण कर आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ की उपादेयता में वृद्धि की है । आख्यानकों को रोचक बनाने के लिए बीच-बीच में सुभाषित, उक्ति, कहावते एवं छोटे-छोटे लौकिक दृष्टान्तों का प्रयोग भी किया है। धूर्तों में शिवानन्द जैसे साधुवेश धारी पाखण्डियों, चमत्कार बताकर लोगों को प्रभावित करने वाले श्रीशेखर जैसे समाज विरोधी तत्त्वों का भंडाफोड़ कर आचार्यश्री ने उनसे बचने की बार-बार प्रेरणा दी है ।
मनोरमा के चार भवों में मुख्यकथा एवं उपकथाओं में हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्मचर्य परिग्रह क्रोध मान माया लोभ आदि अठारह पाप-स्थानों का वर्णन किया है तथा व्रत लेकर जो भंग करता है उसे इस जन्म में और
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( पंद्रह )
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