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किया। बाद में मनोरमा प्रवर्तिनी बनी। शुरसेन ने चौदह-पूर्व का अध्ययन किया। दोनों ने दीर्घकाल तक पृथ्वी पर विचर कर अनेक भव्यों को प्रतिबोध दे सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया और वे मोक्ष में जाकर अनन्तसुख में निमग्न बने। श्री वर्धमानसूरि की प्राकृत साहित्य को देन :
प्राकृत भाषा-साहित्य के विकास में जिन विद्वानों ने अपनी महत्त्वपूर्ण कृतियों द्वारा असाधारण योगदान किया है उनमें आचार्यश्री वर्द्धमानसूरि का नाम सविशेष है। इन्होंने मणोरमा कथा एवं आदिजिन चरित्र जैसे दो महान् प्राकृत ग्रन्थों की रचना कर प्राकृत साहित्य की अनुपम सेवा की है। इनमें से मणोरमा कहा प्रस्तुत है और आदिजिन चरित अभी प्रकाशित नहीं हुआ है। इनकी विरल ही प्रतियाँ उपलब्ध हैं। मनोरमा चरित्र जैसी कथा के माध्यम से आचार्यश्री ने तत्त्व की प्रतिष्ठा में बड़ी कुशलता का परिचय दिया है। यह सब करने का उनका ध्येय एकमात्र लोकजीवन में सत्य की स्थापना और तदनुरूप संयम और सदाचार गभित जीवन-चर्या को प्रतिष्ठित करना था। यही कारण है कि उनकी लेखनी से जो कुछ निकला एक ससीम क्षेत्र से संबद्ध होता हुआ भी समग्र मानवता के हित से जुड़ा है। मानवता ही क्यों उसमें प्राणी मात्र का हित' सन्निहित है। यही कारण है कि उच्चकोटि के गम्भीर तथा अन्तःस्पर्शी वाङमय के रूप में जो अमरदेन उनकी प्राकृत साहित्य को मिली है उसे करालकाल उनके अमरत्व को कभी नष्ट नहीं कर सकता।
मनोरमा कथा का उद्गम स्थल :
मनोरमा कथा का मल कथानक श्री वर्धमानसरि को परम्परा से प्राप्त था। परम्परागत कथानक में अपनी ओर से नई कल्पनाओं का पुट देकर उसे जनोपयोगी बनाया। उन्हीं के शब्दों में कहा जाय तो--
एसो कहा-प्रबंधो कओ मए मंद-बुद्धिणा वि दढं । कत्थइ चरिय-समेओ, कत्थइ पुण कप्पियाणुगओ ।। अहवा सव्वं चरियं न कप्पियं कि पि अस्थि भवणम्मि। .
जमणंते संसारे तं नत्थिह जं न संभवइ ॥ - मनोरमा-कथा में वर्णित महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर हम दृष्टिपात करें तो ऐसा अनुमान होता है कि उनके सर्जन में पूर्ववर्ती कथा परम्पराओं से उन्हें विशेष प्रेरणा मिली है और वे इस बात को स्वीकार भी करते हैं। वैसे वर्द्धमानसुरि से पूर्व इस कथा को आगम या आगमेतर साहित्य में कहीं भी नहीं पाते किन्तु मनोरमा चरित्र में वर्णित घटनाएँ पूर्ववर्ती कथा-साहित्य में यत्र तत्र पाते हैं। जैसे पुत्र-प्राप्ति के लिए देवी-देवताओं की मनौती करना, उत्तर साधक के रूप में स्मशान में जाकर तांत्रिक की सहायता करना, उत्तर साधक की वीरता से प्रसन्न होकर देव द्वारा वरदान देना, सीमावर्ती विद्रोही सामन्त से युद्ध कर उस पर विजय प्राप्त करना, पूर्वजन्म की पत्नी को जातिस्मरण से पुनः प्राप्त करना, विद्याधर द्वारा पत्नी का अपहरण और उसे वीरता से युद्ध कर पुनः प्राप्त करना, सती प्रथा द्वारा पत्नी का पति के शव के साथ देहविलय करना और निदान द्वारा उसे पुनः प्राप्त करना, पुत्र को राज्याधिकारी बनाकर वानप्रस्थ या दीक्षा ग्रहण करना, पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर व्रत ग्रहण करना, धनप्राप्ति के लिए समुद्रयात्रा करना, जहाज के डूब जाने से काष्ठ की सहायता से समुद्र के किनारे पहुँचना, व्यंतरी का राजा के रूप से मग्ध होकर मनुष्यनी के रूप में राजा के साथ विषयभोग करना, सर्प के विष से रा उसके साथ विवाह करना, स्वयंवर मण्डप में वीणावादन द्वारा राजकूमारी को वश कर उसके साथ विवाह करना, स्वयंवर के लिए आये हुए राजाओं के द्वारा युद्ध करना, अपने पराक्रम से या वरदान की सहायता से उन्हें पराजित करना, विद्या की साधना के लिए बलि चढ़ाने के लिए लाई गई सन्दर कन्याओं को बचाकर उनके साथ विवाह
( चौदह )
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