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एक बार जयसुन्दर नाम के आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ जयभूषण नामक उद्यान में पधारे। उद्यानपाल ने आचार्य के आगमन की सूचना राजा शूरसेन को दी। शूरसेन सपरिवार आचार्य के पास पहुँचा। आचार्य ने विशाल परिषद में शरसेन को अठारह पापस्थान का उपदेश दिया। उपदेश से प्रभावित हो उसे वैराग्य हआ। अवसर देखकर मनोरमा ने आचार्य से पूछा-भगवन् ! किस कारण से मेरे पति और पुत्र का वियोग हुआ?" उत्तर में आचार्य ने अपने ज्ञान से मनोरमा के पूर्वजन्म को जानकर कहा-धर्मशीले! तुम्हारे पति और पुत्र के वियोग का कारण पूर्वजन्म का पाप है। वह घटना यह है--
जम्बद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में धन-धान्य से समृद्ध धनपुर नाम का गाँव था। वहाँ धन नाम का मेहर रहता था। आज से नौवे भव में तुम श्री और श्रीमती नाम की उसकी दो पुत्रियाँ थी। तुम बड़ी थी और श्रीमती छोटी। दोनों युवा हुई। वहीं के निवासी कुरुदेव और कुरुदत्त से तुम दोनों का विवाह हुआ। . एक दिन तुमने अपने पति कुरुदेव से पर्वतनदी में जलक्रीड़ा करने की इच्छा व्यक्त की । कुरुदेव ने बात मान ली । श्रीमती और कुरुदत्त के साथ तुम पर्वतनदी की ओर गई। वहाँ अपने पति के साथ घूमती हुई तुम किसी गिरिनिकंज में पहुंची। वहाँ एक सघन वृक्ष पर अपने बच्चों के साथ मोर और मयुरी को देखा । मयरी के बच्चों को लेने के लिए तुम उसके पास पहुँची। डर के मारे मयूरी भाग गई। तुमने बच्चे को उठाया। बच्चे के वियोग में मयरी तडप उठी। एक प्रहर तक बच्चे को अपने पास रखा । बाद में उसे छोड़ दिया। मयरी अपने बच्चे से मिली।
इधर कुरुदत्त श्रीमती के साथ पास ही के गिरिनिकुंज में क्रीड़ा करने लगा। वहाँ सुरदेव नाम का कोई कूलपत्र अपनी पत्नी चन्दना को गोद में सुलाकर उसके बालों को संवार रहा था। उसकी दृष्टि सहसा श्रीमती की ओर गई। श्रीमती की ओर वह बार-बार देखने लगा। श्रीमती ने अपने पति से शिकायत की । क्रोध में आकर कुरुदत्त ने सूरदेव को मार डाला और चन्दना को धमकी देता हुआ बोला-"यदि तुमने यह बात किर भी यही हालत होगी। चन्दना घबराकर चली गई। तुम घर आये और सुख पूर्वक रहने लगे। कुरुदत्त मर कर सेठ बना। तुम उसकी पत्नी बनी। उसके बाद कुरुदत्त मरकर नरसीह राजा बना। तुम उसकी रंभावली नामक पत्नी बनी। नरसीह मरकर समुद्रदत्त बना और तुम तारावली । इसके बाद के भव में तुम रत्नप्रभा बनी और समुद्रदत्त भूरिवसू नामक अमात्य बना । वहाँ से चवकर भूरिवसू शूरसेन बना और तुम उसकी रानी मनोरमा बनी। कुरुदत्त मरकर अपने कुशल अनुष्ठान से कीतिवमे विद्याधर बना और श्रीमती हेमसुन्दरी । मोर का जीव मरकर अशनिवेग बना और मयुरी हेममाला जो अशनिवेग विद्याधर की पत्नी है। चन्दना रत्नमाला के नाम से नरवर्मराजा की पत्नी बनी। शूरसेन ने कुरुदत्त के भव में मोर से उसके बच्चे को अलग किया । उस मोर के जीव अशनिवेग ने पुत्र सहित तुम्हारा अपहरण कर तुझे प्रियमेलक पर्वत पर छोड़ दिया। तथा तुमने मयूरी से उसके पुत्र को अलग किया। उसी के कारण मयूरी के जीव हेममाला ने तुम्हारे पुत्र का अपहरण कर उसे समुद्र में फेंक दिया। इधर कुरुदत्त की पर्याय में रहते हुए कुरुदत्त ने सुरदेव को मार डाला था उसी के फलस्वरूप नरवर्म द्वारा कीर्तिवर्म मारा गया। तथा हेमसुन्दरी जो पूर्वजन्म में श्रीमती की पर्याय में थी उसने चन्दना का उसके पुत्र से वियोग करवाया उसी के पाप के फल स्वरूप चन्दना ने रत्नमाला की पर्याय में प्रियमेलक पर्वत से हेमलसुन्दरी के पुत्र का अपहरण कर दुःख से इसकी मृत्यु हो यह सोचकर उसे वृक्ष से बान्धकर छोड़ दिया। अतः हे भद्रे ! तुम ने पूर्वजन्म में राग और द्वेष से जो कर्म उपाजित किये उसी का यह फल है। मनोरमा ने कहा-भगवन् ! इस पाप का फल कितने समय तक रहेगा ?" उत्तर में आचार्य ने कहा । तुम्हारे पाप का फल इतना ही था किन्तु हेमसुन्दरी तथा कीर्तिवर्म अपने पाप का फल भोगते रहेंगे । अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर मनोरमा बोली-भगवन् ! मैं जन्ममरण के दुःख से मुक्त होने के लिए आपके पास प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ। शरसेन को भी वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने भी दीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की। दोनों घर आये । शूरसेन ने मनोरमसेन को राज्याभिषिक्त किया और मनोरमा के साथ राजा शूरसेन प्रव्रजित हुए । मनोरमा शुभंकरा प्रवर्तनी की शिष्या बनी और ग्यारह अंग का अध्ययन
( तेरह )
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