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माता-पिता से विदाई ले मनोरमा पति के साथ श्वसुर कुल पहुँची । वहाँ कुछ समय के बाद उसने एक सुन्दर पुत्र रत्न को जन्म दिया। बालक का नाम मनोरमसेन रखा गया । सूरतेज राजा शूरसेन को राजगद्दी पर बैठाकर अमरसेन आचार्य के पास दीक्षित हो गया । शूरसेन न्यायपूर्वक प्रजा का परिपालन करने लगा ।
एक दिन रात्रि के समय मनोरमा का पुत्र के साथ शूरसेन के देखते-देखते ही अश्वनी वेग नामक विद्याधर ने अपहरण किया और उन्हें एक पर्वत के शिखर पर ला के छोड़ दिया । सहसा पर्वत के शिखर पर अपने आपको निस्सहाय पाकर मनोरमा आक्रन्दन करने लगी। उसी समय हेममाला नाम की खेचरी उसी मार्ग से निकली । उसकी दृष्टि मनोरमसेन बालक पर पड़ी। उसने उसका अपहरण किया । पुत्र और पति दोनों के वियोग में मनोरमा खूब व्यथित हुई और पुत्र की चारों ओर खोज करने लगी । पुत्र की तलाश में इधर उधर घूमती हुई मनोरमा पर हेमसुन्दरी नामक खेचरी की दृष्टि पड़ी। वह उसके पास गई और मनोरमा का परिचय पूछा । मनोरमा ने आपबीती सुनाई । मनोरमा की दुखभरी कथनी सुनकर उसे आश्वासन देते हुए कहा - "मनोरमा ! तुम दुखी मत बनो। थोड़े समय में ही पति और पुत्र का मिलाप हो जायगा ।" यह बात चल ही रही थी कि इतने में पूजा की सामग्री लिये श्यामला नामक दासी वहाँ आ पहुँची । उसने हेमसुन्दरी से कहा- देवी ! जिनपूजा का समय हो गया है। तत्काल हेमसुन्दरी उठी और मनोरमा के साथ जिनमन्दिर पहुँची । हेमसुन्दरी एवं मनोरमा ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक जिनप्रतिमा का पूजन किया। पूजन के बाद मनोरमा ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक पार्श्वजिन की स्तुति की। स्तुति से प्रसन्न हुए मन्दिर के रक्षक किसी देव ने अदृश्य रहकर कहा- मनोरमे ! तुम्हारी असाधारण भक्ति से तुम यहीं पर अपने पति तथा पुत्र को प्राप्त करोगी । यह सुनकर मनोरमा अत्यन्त संतुष्ट हुई । हेमसुन्दरी मनोरमा को अपने महल में ले गई और बड़ी मुश्किल से उसे भोजन करवाया । इसके बाद मनोरमा ने पूष्ठा - हेमसुन्दरी ! तुम यहाँ अकेली ही क्यों रहती हो । यह भव्य जिनमन्दिर उद्यान और प्रासाद किसने बनाया ? उत्तर में हेमसुन्दरी ने अपनी आप बीती सुनाई और कहा- मेरे पिता ने ही मेरी शान्ति के लिए जिनमन्दिर एवं प्रासाद बनवाया है। अब दोनों ही जिनभक्ति करती हुई आनन्द से वहां रहने लगी ।
एक दिन हेमसुन्दरी ने कहा- मनोरमे ! तुम मेरी मोसी की पुत्री बहन हो । मनोरमा ने कहा कैसे ? उत्तर में हेमसुन्दरी बोली - एक बार मेरी मां ने तुम्हारा जिक्र करते हुए कहा - विजयावली नाम की मेरी छोटी बहन थी । उसका स्नेहवश चन्द्रकंत पुर के स्वामी विजयसेन राजा के साथ विवाह किया गया । तुम उसी की पुत्री हो । आज अकस्मात ही तुम्हारा मिलन हुआ। इस तरह दोनों ही सुख दुख की बातें करती हुई वहीं रहने लगी ।
एक दिन सहसा विमान की पंक्तियाँ आकाश में नजर आई । विमान से कीर्तिसुन्दर मनोरमसेन गंधर्वसेन आदि विद्याधर भूमि पर उतरे और मन्दिर में प्रवेश कर पारिजात आदि पुष्पों से भावपूर्ण पार्श्वजिन का पूजन किया । और जिन भवन के मण्डप में जा कर बैठे। उन सब को देखकर हेमसुन्दरी ने मनोरमा से कहा- मनोरमे ! गंधर्वसेन के पास मेरा पुत्र कीर्तिसुन्दर सा लगता है । मनोरमा ने भी ध्यान से देखकर कहा - मेरा पुत्र मनोरमसेन भी उसके पास दिखाई दे रहा है। इतने में विजयसेन और शूरसेन भी भगवान का पूजन कर वहाँ आये। उन दोनों को देख हेमसुन्दरी से मनोरमा बोली- विजयसेन मेरा पिता है और शूरसेन मेरा पति है । मन्दिर में एकत्र हुए सभी विद्याधरों
महामहोत्सव पूर्वक जिनपूजन एवं नाटक किया। यहाँ सभी एकत्र हुए और एक दूसरे का परिचय हुआ । मनोरमा at भी अपना पति और पुत्र मिल गया । सब ने अपनी अपनी आपबीती सुनाई। वहाँ से सभी नभसुन्दर नगर गये और आनन्द से रहने लगे ।
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कुछ दिन के बाद शूरसेन एवं गंधर्वसेन का नरवर्म और अशनिवेग के साथ युद्ध हुआ । राजा शूरसेन ने दोनों युद्ध में मार डाला । मामा और जामाता की युद्ध में मरण सुनकर विद्युत्वेग चक्रवर्ती विद्युत्वेग अपनी विशाल सेना के साथ नभसुन्दर नगर पहुँचा । सूरसेन का विद्याधर चक्रवर्ती के साथ भयंकर युद्ध हुआ और उसमें चक्रवर्ती मर गया और शूरसेन जीत गया । शूरसेन को राज्याभिषिक्त किया गया ।
( बारह )
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