SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पास आकर बोला- मैंने तेरे पति को रस्सी से बान्धकर पर्वत के ऊँचे शिखर पर छोड़ दिया है अब वह किसी भी हालत में नहीं बचेगा। यदि तू मुझे पति के रूप में नहीं स्वीकार करेगी तो तेरी भी यही स्थिति होगी । पति की दुर्दशा सुनकर रत्नप्रभा बड़ी दुखी हुई । कामांकुर ने उसे अपनी पत्नी बनाने के अनेक उपाय किये किन्तु वे सब असफल हुए । निराश कामांकुर ने रत्नप्रभा को पर्वत शिखर से फेंक दिया। उसी समय विद्युतवेग नामक विद्याधर उसी मार्ग से जा रहा था उसने पर्वत से गिरती हुई रत्नप्रभा को उठा लिया और औषधोपचार से उसे स्वस्थ किया । सचेत होने पर विद्युत्प्रभ ने रत्नप्रभा से परिचय पूछा। रत्नप्रभा ने आपबीती सुनाई । रत्नप्रभा की आपबीती सुनकर विद्युत्वेग ने रत्नप्रभा से कहा - बहन ! धीरज रखो तुम्हारे दुःख जल्दी ही दूर होंगे। इतने में गीतरति नाम के विद्याधर ने भूरिवसू को विद्युत्वेग के सामने उपस्थित किया । रत्नप्रभा ने अपने भावी पति भूरिवसू को पहचान लिया। दोनों का मिलन हुआ । विद्युत्वेग ने दोनों का गांधर्व विधि से विवाह करा कर और कुछ दिन तक अपने यहाँ रख प्रचुर धनराशि दे उन्हें घर पहुँचा दिया । भूरिवसू एवं रत्नप्रभा के पुनर्मिलन से दोनों के माता-पिता बड़े प्रसन्न हुए । दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । वसूसार भूरिवसू को मंत्री पद देकर वनवासी हो गया । एक बार नगर में श्रीनन्दन सूरि नाम के ज्ञान सम्पन्न आचार्य पधारे। भूरिवसू एवं रत्नप्रभा दोनों आचार्यश्री के वन्दन के लिए गए। आचार्य ने भूरिवसू को श्रावक के बारह व्रत एवं उनके अतिचार समझाये । प्रत्येक व्रत पर एक-एक कथा सुनाकर व्रतों का हार्द समझाया। आचार्य के उपदेश से प्रभावित भूरिवसू ने व्रत ग्रहण किये। रत्नप्रभा ने भी व्रत लिये । अन्त में दोनों समाधि पूर्वक मर कर ईशानकल्प में महद्धिक देव देवी बने । चतुर्थ अवसर- मनोरमा शूरसेन की कथा : भारतवर्ष में धनकोष नाम का नगर था । वहाँ सूरतेज नाम का राजा राज्य करता था उसकी रानी का नाम कमलालता था । ईशानकल्प निवासी भूरिवसू का जीव देवलोक से च्युत होकर कमलालता के गर्भ में उत्पन्न हुआ। उसी रात्रि में कमलालता ने शतपत्र कमल से ढंका हुआ श्वेतपुष्पों की माला से युक्त शुद्धजल से परिपूर्ण चान्दी के कलश को उदर में प्रवेश करते हुए देखा । रानी ने राजा से स्वप्न का फल पूछा । राजा ने कहा- तुम श्रेष्ठ राजपुत्र को जन्म दोगी । गर्भकाल के पूरा होने पर रानी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। बालक का नाम शूरसेन रखा गया । इधर रत्नप्रभा के जीव ने ईशानकल्प से चवकर वत्सदेश के चन्द्रकान्त नगर में विजयसेन राजा की रानी विजयावली के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्म लिया । इसका नाम मनोरमा रखा गया । क्रमशः बढ़ती हुई मनोरमा युवा हुई । मनोरमा के अपूर्व रूप यौवन को देखकर राजा ने रानी विजयावली की सलाह से स्वयंवरमण्डप की रचना की । स्वयंवरमंडप में दूर दूर के राजा एवं राजकुमार आये। इधर जब सूरतेज को आमंत्रण मिला तो वह अपने पुत्र शूरसेन को लेकर चन्द्रकान्त नगर में पहुँचा । शुभ मुहूर्त में स्वयंवर मंडप रचा गया। सभी राजकुमार अपने अपने स्थान पर बैठे । शूरसेन कुमार ने भी अपना स्थान लिया । 1 मनोरमा हाथ में वरमाला लेकर अपनी दायमाता के साथ मंडप में उपस्थित हुई। दाय माता से अनेक राजकुमारों के रूप बल एवं वैभव की बातें सुनी राजकुमारों को देखा किन्तु मनोरमा ने एक भी पसन्द नहीं किया । बढ़ती हुई मनोरमा की दृष्टि एक राजकुमार पर पड़ी वह था शूरसेन । उसे देखते ही वह मुग्ध हो गई और उसने उसके गले में हार पहना दिया । सर्वत्र जयविजय की घोषणा हुई। मनोरमा का विवाह बड़ी धूमधाम से राजकुमार शूरसेन के साथ संपन्न हुआ । Jain Education International 2010_04 ( ग्यारह ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002596
Book TitleManorama Kaha
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy