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________________ को देखते ही दूसल-दुर्मुख भाग गये। समुद्रदत्त ने अपनी सारी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। समुद्रदत्त रतिसुन्दरी के साथ अपने ससुराल पहुँचा । समुद्रदत्त को देख सारा परिवार प्रसन्न हुआ । वेलाविलास समुद्रदत्त की आज्ञा लेकर घर चला गया। नरदत्त श्रेष्ठी समुद्रदत्त को ले राजा के पास पहुँचा । राजा को जब असलियत का पता चला तो उसने दूसल-दुर्मुख की तलाश करवाई किन्तु इन दोनों का कहीं पता नहीं चला। अब समुद्रदत्त अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुख पूर्वक रहने लगा । एक बार पियंकर नाम के आचार्य नगर में पधारे तारावली के साथ समुद्रदत्त आचार्यश्री के वन्दन के लिए गया आचार्य ने महती सभा में सम्यक्त्व का स्वरूप समझाया। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि सम्यक्त्व के दूषणों को एक-एक उदाहरण से समझाया । तारावली और समुद्रदत्त ने आचार्य से सम्यक्त्व ग्रहण किया। उसके बाद आचार्य ने धूप, दीप, गंध आदि अष्ट प्रकार की जिनपूजा की महिमा को एक-एक दृष्टान्त से समझाया । आचार्य विहार कर अन्यत्र चले गये । कालान्तर में नवकारमंत्र का स्मरण करता हुआ समुद्रदत्त समाधिपूर्वक मरा और ईशान देवलोक में महद्धिक देव बना। पति के वियोग में संतप्त तारावली ने पति के शव के साथ निदानपूर्वक अग्निस्नान किया और मरकर उसीकी देवी बनी । तृतीय अवसर - भूरिवसू तथा रत्नप्रभा की कथा : जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत की उत्तरश्रेणी में नभसुन्दर नाम का नगर था। वहाँ आखण्डल नामक विद्याधरों का राजा राज्य करता था । वसुसार नामक उसका मंत्री था और मंत्री की पत्नी का नाम था कनकवी । समुद्रदत्त का जीव देवलोक से चवकर कनकश्री के गर्भ में आया। उसी रात्रि में स्वप्न में कनकश्री ने श्वेतहाथी को उदर में प्रवेश करते हुए देखा । प्रातः स्वप्न का फल पति से पूछा। पति ने उत्तम पुत्र होने की बात कही । यथा समय कनकश्री ने पुत्र को जन्म दिया। बालक का नाम भूरिवसू रखा। आठ वर्ष का होने पर भूरिवसू को कलाचार्य के पास कला सीखने के लिए रखा गया। उसने अल्प समय में ही कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली। इधर तारावली के जीव ने भी देवलोक से चवकर उसी नगर में पुण्यसार खेचरकी पत्नी कनकमाला के उदर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। जन्म के पश्चात् बालिका का नाम रत्नप्रभा रखा गया। रत्नप्रभा युवा हुई । एक बार भूरिवसू अपने मित्रों के साथ उद्यान में घूमने के लिए गया। उस समय सखियों के साथ उद्यान में घूम रही थी। दोनों की आँखे चार हुई और दोनों एक दूसरे में एक बार रत्नप्रभा प्रासाद की अट्टालिका पर स्वर्णकन्दुक के साथ श्रीड़ा कर रही थी। उस समय दक्षिण श्रेणी का विद्याधर कामांकुर आकाश मार्ग से जा रहा था। उसकी दृष्टि रत्नप्रभा पर पड़ी । रत्नप्रभा के रूप पर वह मुग्ध हो गया । उसने प्रेम की याचना की। रत्नप्रभा ने उसका अपमान कर उसे वहाँ से निकाल दिया। अब वह रत्नप्रभा को पाने का उपाय सोचने लगा । रत्नप्रभा भी अपनी आसक्त हो गए । इधर पुण्यसार खेचर ने रत्नप्रभा की भूरिवसू के साथ सगाई कर दी। कामांकुर को जब इस बात का पता चला तो उसने रत्नप्रभा का अपहरण कर दिया और उसे एक पर्वत के शिखर पर ले गया। अकस्मात् गायब हुई रत्नप्रभा की खोज पुण्यसार ने बहुत की किन्तु उसका कहीं भी पता नहीं लगा। भूरिवसु रत्नप्रभा की खोज के लिए निकला। घूमते-घूमते वह एक समुद्र के किनारे पहुँचा कामांकुर की उस पर दृष्टि पड़ी। उसने सोचा- जब तक यह जीवित रहेगा तब तक रत्नप्रभा मेरी नहीं हो सकेगी। ऐसा सोचकर उसने उसे ऊपर उठाया और सुवज्य पर्वत के शिखर पर लाकर हाथ पैर बांधकर छोड़ दिया। कामांकुर रत्नप्रभा के ( बस ) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002596
Book TitleManorama Kaha
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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