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________________ लिया । तारावली की तत्काल मृत्यु हो गई। इस घटना से राजा को लगा कि मैंने ही तारावली को जहर देकर मार डाला है। राजा ने मेरा बहिष्कार कर दिया। मैं अपने पिता के घर श्रीपुर चली गई। इधर एक दिन व्यंतरी मेरा रूप बनाकर राजा के पास पहुंची। राजा ने व्यंतरी को मेरे रूप में देखकर कहा-दुष्टे ! तू फिर चली आई ! मैं तो तेरा मुख भी नहीं देखना चाहता यह कह कर राजा ने व्यंतरी को निकाल दिया । व्यंतरी ने कुछ क्षण बाद सुन्दर स्त्री का रूप बनाया और वह राजा के पास पहुँची । राजा यह देखकर आश्चर्य चकित हो गया उसने पूछा-देवी ! तुम कौन हो ? आधी रात के समय यहाँ कैसी चली आई ? व्यंतरी ने कहा-राजन् ! मैं उद्यान देवता हूँ और तुम पर मुग्ध हूँ। मैं ही कभी तारावली के रूप में तो कभी ताराप्रभा के रूप में आपके पास आती थी । यह सुनते ही राजा व्यंतरी पर बड़ा ऋद्ध हआ और म्यान से तलवार निकाल कर उसे मारने के लिए दौड़ा । व्यंतरी तत्काल वहाँ से भाग गई। राजा को मेरी निर्दोषता का पता लगा। राजा ने बड़े सम्मानपूर्वक मुझे पुनः राजमहल में बुलाया । मैं राजा के साथ सुखपूर्वक रहने लगी। कुछ दिन के बाद मुझे तारहार नामक पुत्र हुआ । इसी खुशाली में राजा ने मुझे यह रत्नावली हार दिया था। पुत्र को राज्य देकर हम दोनों ने तापसी दीक्षा ग्रहण की । राजा की कुछ समय के बाद मुत्यु हो गई। आगामी भव में पुन: मुझे यही पति मिले ऐसा निदान कर मैंने अग्नि में प्रवेश किया। वहां से मरकर मैंने आपके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया । नरसीह कुमार मेरा पूर्वजन्म का पति है। पुत्री के मुख से पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर राजा चण्डसेन नरसीह कुमार के पास पहुँचा। उसने रंभावली के पूर्वजन्म की बात सुनाई। रंभावली मेरे पूर्वभव की पत्नी है यह जानकर नरसीह कुमार बड़ा प्रसन्न हुआ। दोनों एक दूसरे से मिले । दोनों के बीच खुब स्नेहभाव बढ़ा। दोनों को एक दूसरे में अन रक्त देखकर चण्डसेन ने रम्भावली के विवाह का प्रस्ताव कुमार के सामने रखा । कुमार ने प्रत्युत्तर में कहा-पिता की आज्ञा मिलने पर ही मैं रंभावली के साथ विवाह कर सकता हूँ। कुछ दिन के बाद नरसीह कुमार ने रंभावली और चण्डसेन के साथ स्वनगर के लिए प्रस्थान कर दिया। चलते-चलते मार्ग में करियारकोस नाम का नगर आया । कुमार ने नगर के बाहर अपना पड़ाव डाला । वहाँ वध के लिए ले जाते हुए योगसार नामक परिव्राजक को उसने देखा । कुमार को परिव्राजक पर बड़ी दया आई। राज के पास पहुँचकर कुमार ने परिव्राजक को मुक्त कर दिया। परिव्राजक ने प्रत्युपकार में सिद्धगारुडी मंत्र और अदृश्य अंजन दिया उसी नगर में एक बड़ा ठग रहता था उसने लोहे का सोना बनाने की नकली रसतुंबिका चंडसेन को देकर लाख स्वर्ण मुद्रा उससे ठग ली । यह बात चण्डसेन ने कुमार से कही । कुमार ने चंडसेन को ऐसी लोभवृत्ति के लिए उपालम्भ दिया और लोभ के दुष्परिणाम पर सुगुप्त मंत्री का दृष्टान्त कहा। फिर अदृश्य अंजन की सहायता से असली धूर्त का पता लगाकर चण्डसेन को लाख स्वर्ण मुद्रा दिलवाई। वहाँ से नरसीह कुमार पुरिमताल नामक नगर में पहुंचा। वहाँ नीलकंठ नाम का राजा राज्य करता था। उसकी नीलसुन्दरी नाम की राजकुमारी सर्पदंश से मूछित पड़ी थी। राजा ने राजकुमारी को बचाने के सैकड़ों प्रयत्न किए। सब प्रयत्न निष्फल गये । नरसीह कुमार को जब इस बात का पता लगा तो वह राजमहल पहुँचा और सिद्धगारुड़ी मंत्र की सहायता से राजकुमारी को जहर से लकण्ठ राजा कुमार के इस परोपकारी कृत्य से बड़ा प्रसन्न हआ। उसने नीलसुन्दरी से विवाह करने का कुमार से आग्रह किया। कुमार ने पिता की अनुज्ञा मिलने पर विवाह की स्वीकृति दी। कुमार ने नीलसुन्दरी को साथ ले वहां से प्रस्थान कर दिया। कुमार अपने नगर पहुँचा । नरकेसरी राजा ने बड़े उत्सवपूर्वक नरसीह कुमार का नगर प्रवेश करवाया। राजा और नगरजनों ने कुमार की भूरि-भूरि प्रशंसा की। नरकेसरी राजा ने रंभावली और नीलसुन्दरी के साथ नरसीह कुमार का विवाह कर दिया। रंभावली ने नरवीर नामक पुत्र को जन्म दिया । पौत्र प्राप्ति के बाद नरकेसरी राजा नरसीह कुमार को राजगद्दी पर (सात) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002596
Book TitleManorama Kaha
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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