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एक दिन नरकेसरी राजा सिंहासन पर राजसभा में बैठा हुआ था । इतने में विद्रोही सामन्त चण्डसेन के यहां से एक दूत आया और विनयपूर्वक राजा से निवेदन किया। महाराज ! चंडसेन नामक सामन्त ने अपने पराक्रम के गर्व से आपके अनुशासन को मानने से इनकार कर दिया है। यह सुनते ही राजा चण्डसेन पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने उस पर आक्रमण करने के लिये सेना को तैयार रहने की आज्ञा दी । उसी अवसर पर नरसीह कुमार पिता के चरणवन्दन के लिए राजसभा में पहुँचा । उसने पिता के मुख से चण्डसेन के विद्रोही होने की बात सुनी । बड़ी कठिनाई से पिता की आज्ञा प्राप्त कर नरसीह कुमार कुछ चुनिंदे सिपाहियों के साथ चण्डसेन का दमन करने के लिए चल पड़ा । वहाँ पहुँचकर नरसीह कुमार ने चण्डसेन के साथ भयंकर युद्ध किया । अन्त में चण्डसेन युद्ध में हार गया और कुमार ने उसे बन्दी बना लिया । शरणागति के स्वीकार करने पर कुमार ने चण्डसेन को सम्मान पूर्वक मुक्त कर दिया ।
एक दिन नरसीह कुमार चण्डसेन के साथ उद्यान में बैठा हुआ गपशप लगा रहा था उस समय भांडारिक आकर चण्डसेन से बोला - " स्वामी ! आपने जिस बहुमूल्य मुद्रारत्न को कुमार के लिए मंगवाया था उसे मैं ले आया हूँ । चण्डसेन ने मुद्रारत्न कुमार को दिया । कुमार ने उस प्रकाशमय मुद्रारत्न को अपनी अंगुली में पहना । मुद्रारत्न को जब ध्यान से देखा तो उस पर तारापीड यह नाम अंकित था । यह नाम उसे परिचित सा लगा । अधिक विचार करने पर उसे जातिस्मरण हो आया । पूर्वजन्म की स्मृति से उसने यह जाना कि तारापीड तो मैं ही था । नरसीह कुमार ने भांडारिक से पूछा- यह मुद्रारत्न तुम्हें कहां से मिला ? उसने कहा-तारापुर के राजा तारहार से मिला है। अब उसे पूरा निश्चय हो गया कि तारहार तो मेरे पूर्वजन्म के पुत्र का नाम है। नरसीह कुमार ने चण्डसेन को अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि यह मुद्रारत्न मेरा ही है । मुद्रारत्न नरसीह कुमार का ही है यह जानकर चण्डसेन बड़ा प्रसन्न हुआ ।
एक दिन नरसीह कुमार ने अपने पास का रत्नावली हार चण्डसेन को दिया । चण्डसेन ने उस हार को अपनी प्रियपुत्री रंभावली को दिया । हार को देखते ही रंभावली को पूर्वजन्म का स्मरण हो आया और वह मूच्छित हो कर जमीन पर गिर पड़ी। शीतल जल के उपचार से उसकी मूर्छा दूर हुई । सचेत होने के बाद चण्डसेन ने रंभावली से पूछा-पुत्री ! रत्नावली हार को देखते ही तुम मूर्छित क्यों हुई ? उत्तर में रंभावली ने अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा - " पिताजी ! मैं पूर्वजन्म में तारापुर नगर के स्वामी तारापीड की तारा प्रभा नाम की रानी थी। राज की दूसरी रानी का नाम तारावली था । हम दोनों पर राजा का समान प्रेम था । एक दिन मैं राजा के शयनकक्ष में जाती और दूसरे दिन तारावली । इस प्रकार हम दोनों का सुखपूर्वक समय बीतने लगा ।
एक दिन उद्यान में घूमते हुए राजा को एक व्यंतरी ने देखा । व्यंतरी राजा पर मुग्ध हो गई । अब वह हम दोनों का बारी-बारी से रूप बनाकर रात्रि में राजा के पास जाने लगी । एक दिन मैं राजा के शयनकक्ष में गई तो वहां तारावली को राजा के साथ शयन करते हुए देखा। दूसरे दिन जब तारावली राजा के पास पहुंची तो उसने मुझे राजा के साथ देखा । इस घटना से हम दोनों एक दूसरी को शंका की दृष्टि से देखने लगी । इस बात को लेकर हम दोनों के बीच झगड़ा होने लगा ।
एक दिन मैंने अवसर देखकर राजा से कहा- आप आजकल मेरी ओर बिलकुल उपेक्षित हो गये हैं । तारावली को ही सब कुछ मान रहे हो । दूसरे दिन तारावली ने भी यही कहा । हम दोनों की बात सुनकर राजा विचार में । और मन में सोचने लगा- मैं तो दोनों की प्रति समान व्यवहार रखता हूँ फिर भी ये
पड़ गया
दोनों ऐसी बातें क्यों करती हैं ?
एक दिन व्यंतरी किसी कार्यवश बाहर चली गई और रात में देरी से लौट आई तो उसने तारावली को राजा के पास सोई हुई देखा । व्यंतरी बड़ी क्रुद्ध हुई । दूसरे दिन सर्प के रूप में आकर उसने तारावली को डंस
( छह )
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