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हैं। तृतीय अवसर में भूरिवसू एवं रत्नप्रभा के भव का वर्णन है। इस भव में दोनों श्रावक के व्रतों को धारण करते हैं। चौथा अवसर शूरसेन और मणोरमा का है जिसमें दोनों प्रव्रजित हो निर्वाण प्राप्त करते हैं। प्रथम अवसर नरसीह और रंभावली की कथा : .
जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में रत्नपुर नाम का नगर था। वहां नरकेसरी नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम प्रियंगमंजरी था। सन्तान के अभाव में प्रियंगुमंजरी सदा चिन्तित रहती थी । उसने सन्तान प्राप्ति के लिए अनेक देवदेवियों की मनौती की किन्तु दुर्भाग्यवश सन्तान प्राप्ति के सब प्रयत्न विफल हए। राजा रानी के इस दुःख में समभागी बन उसे आश्वासन देता है।
एक दिन राजा ने अघोरघंट नामक तांत्रिक की उत्तरसाधक के रूप में सहायता की। तांत्रिक राजा की सहायता से अपने मंत्र की साधना में सफल हुआ। राजा के पराक्रम से प्रसन्न होकर श्रीशेखर नामक वेताल ने राजा को एक कीमती रत्नावली नामक हार दिया और बोला कि यह हार जो धारण करेगा उसकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। राजा हार को लेकर रानी के पास गया और बड़े प्रेम से उसके गले में उसे पहनाया। हार के प्रताप से रानी ने उसी रात्रि में सिंह को मुख में प्रवेश करते हुए स्वप्न में देखा । प्रात: स्वप्न का हाल पति को सुनाया। स्वप्न सूनकर राजा रानी से बोला-प्रिये! तुम सिंह जैसे महान पराक्रमी पुत्र को थोड़े समय में ही जन्म दोगी।' रानी गर्भवती हुई । नौ महिने पूर्णकर रानी ने सुन्दर एवं तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का जन्मोत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया गया। स्वप्न के अनुसार बालक का नाम नरसीह कुमार रखा। बालक जब आठ वर्ष का हुआ तो उसे कला सीखने के लिए कलाचार्य के पास भेज दिया। अल्प समय में ही नरसीह कुमार ने समस्त कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली। नरसीह कुमार ने युवावस्था में प्रवेश किया।
एक दिन नरसीह कुमार वसन्तमास में अपने समवयस्क मित्रों के साथ उद्यान की शोभा को देखने के लिए प्रकृतिरम्य उद्यान में गया। वहाँ मित्रों के साथ विविध क्रीड़ाओं को करता हआ एक लतामंडप में गया । वहां कमलशय्या पर सोए हुए एवं प्रियतमा के विरह में अविरत आंसू बहाते हुए धनदेव नामक वणिक पुत्र को देखा। नरसीह कुमार ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसे रुदन का कारण पूछा । राजकुमार के सौहार्दपूर्ण व्यवहार से प्रभावित वणिक पुत्र ने अपनी प्रियतमा के वियोग की कहानी सुनाई । उसकी आपबीती सुनकर कटुमुख नामक मित्र उसकी हंसी उड़ाने लगा। राजकुमार को मित्र की यह उद्दण्डता अच्छी नहीं लगी। उसने उसे उपालम्भ देते हुए कहा-दुःखी व्यक्ति को मधुर शब्दों से आश्वस्त करने की बजाय उसकी हंसी उड़ा में वृद्धि करना सज्जन व्यक्ति का कार्य नहीं है। उसने इस बात पर अमृतमुखा और कटुभाषिणी वृद्धा का उदाहरण सुनाया । इसी प्रसंग को लेकर एक मधुरभाषी मित्र ने पुण्यसार नृप एवं मतिसार मंत्री की कहानी सुनाई। यह वार्तालाप चल ही रहा था कि इतने में अमरतेज नाम के आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ उसी उद्यान में ठहरे । नरसीह कुमार धनदेव वणिक और अपने मित्रों के साथ आचार्य के दर्शन के लिए गया। आचार्य ने महती सभा के बीच नरसीह कुमार को धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश में मनुष्य जन्म की दुर्लभता बताते हुए दान-शील-तप और भावना रूप धर्म की व्याख्या कर प्रत्येक धर्म पर अलग-अलग कथा कह कर आचार्य ने धर्म का हार्द समझाया ।
प्रवचन समाप्ति के बाद नरसीह कुमार ने धनदेव की पत्नी गुणवती के वियोग का कारण पूछा । आचार्य ने ज्ञान बल से गुणवती का सारा वृत्तान्त सुनाया । गुणवती का वृत्तान्त सुनकर धनदेव को वैराग्य उत्पन्न हुआ। गृहवास छोड़कर धनदेव आचार्य के पास दीक्षित हो गया। नरसीह कुमार ने सम्यक्त्व को धारण किया। आचार्य ने अन्यत्र विहार कर दिया।
( पाँच )
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