________________
करते हैं, बौद्ध विशेष को ही सत् मानते हैं, न्याय-वैशेषिक सामान्य और विशेष को निरपेक्ष और भिन्न-भिन्न मानते हैं।'
परंतु जैन दर्शन सामान्य-विशेषात्मक सत्ता युक्त को ही सत् मानता है। उसका स्पष्ट कथन है विशेष रहित सामान्य खरगोश के सींग के समान है और सामान्य रहित विशेष भी इसी प्रकार से असत् होता है।'
अशोक ने भी अपने ग्रन्थ में एकांत सामान्य विशेष का खंडन करते हुए कहा कि जो अलग-अलग दिखने वाली पाँच अँगुलियों में केवल सामान्य रूप को देखता है वह पुरुष अपने सिर पर सींग ही देखता है। अत: विशेष को छोड़कर मात्र पदार्थों में सामान्य का ज्ञान होना असंभव है।'
बौद्ध सामान्य और स्वलक्षण में भेद मानते हैं। उनके अनुसार स्वलक्षण का कार्य अर्थक्रिया करना है, सामान्य कोई अर्थक्रिया नहीं करता। स्वलक्षण परमार्थसत् है और सामान्य संवृत्तसत् अर्थात् काल्पनिक है।'
जैनदर्शन वस्तु को विरोधी युगल से सिद्ध करते है। आचार्य समंतभद्र के अनुसार “विरोधी धर्मों का अविरुद्ध सद्भाव प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। वस्तु में विरोधी धर्म का होना वस्तु को भी रुचिकर है, हम उनका निषेध नहीं कर सकते।'
सामान्य और विशेष को निरपेक्ष या अभिन्न मानना प्रमाणाभास हो सकता है, प्रमाण नहीं।'
हम सामान्य को शाश्वत और विशेष को अशाश्वत भी कह सकते हैं, क्योंकि आचार्य समंतभद्र ने स्पष्ट कहा है कि सामान्य की अपेक्षा वस्तु न उत्पन्न होती है और न नष्ट, परंतु विशेष की अपेक्षा उत्पन्न भी होती है
और नष्ट भी।' 1. स्याद्वामंजरी 14.120 2. निर्विशेष हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत. मी.लो. आकृ. श्लो. 10. 3. एतासु पंचस्ववभासनीषु. ईक्षते सः अशोकविरचित सामान्य द्रपणदिक्गन्थे उद्धृतेयम् स्याद्वाद. 24.122 4. “यदेव अर्थक्रियाकारि...स्वासामान्यलक्षणे" प्रमाण वा. 2.3 5. विरुद्धमपि संसिद्ध...तत्र के वयम्” अष्टस. पृ. 292. 6. प्रमाण नयतत्वा. 6.86.87 7. "न सामान्यात्मनो...दयापि सत" आ.मी. 1.57
52
Jain Education International 2010_03
OPrivate & Personal Use Only
www.jainelibrary.org