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________________ होती है। संपूर्ण संसार ब्रह्म की ही पर्याय है, पर लोग ब्रह्म को न देखकर उसकी पर्याय ही देखते हैं, जबकि यह मिथ्या है, क्योंकि यह प्रतीति का विषय है और जो भी प्रतीति के विषय हैं, जे मिथ्या हैं जैसे सीप में चाँदी।' जिस सृष्टि को मायामात्र कहकर ब्रह्माद्वैतवादी ब्रह्म को ही सत् मानकर अद्वैत सिद्ध करते हैं, वह माया सत् है या असत्? अगर माया को सत् माने तो अद्वैत नहीं रहेगा और असत् माने तो तीनों लोकों के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहें कि माया माया होकर अर्थक्रिया करती है, तो उसी प्रकार विरोधाभास होगा जैसे यह कहना कि एक स्त्री मां होकर भी बांझ है। जैन दर्शन समन्वय करता है:-जैन दर्शन का दृष्टिकोण आपेक्षिक रहा है। वह एकांत से न भेद मानता है और न अभेद। उसकी मान्यता है-जो द्रव्य है वह गुण या पर्याय नहीं और जो गुण या पर्याय है वह द्रव्य नहीं।' गुण और गुणी से भेद न करें तो द्रव्य का लक्षण संभव नहीं है। द्वैत के अभाव में अद्वैत की सिद्धि संभव ही नहीं है।' जैन दर्शन के अनुसार लक्षणरूप भेद होने पर भी वस्तु स्वरूप से गुण और गुणी अभिन्न हैं। यद्यपि ये आपस में विशेषण विशेष्य से संबंधित हैं, फिर भी दोनों अभिन्न हैं।' द्रव्य में गुण-गुणी का भेद प्रादेशिक नहीं है, अपितु अतद्भाविक है। संज्ञा की अपेक्षा भेद अवश्य प्रतीत होता है, परंतु सत्ता की अपेक्षा दोनों में अभेद है।" 1. यथा पयो पयोन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यतिः, यथा विषं विषांतरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा च कतकरजो रजोन्तराविले पयसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिंदत स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पयः करोति एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराणि अपगमयत् स्वयमप्यपगच्छतीति। ब्रह्मसू. शा.भा.भा. पृष्ठ 32. 2. सर्व वै खल्विदं....तत्पश्यति कश्चन छान्दोग्य उ. 14 3. स्याद्वादमंजरी 13.112. 4. माया सती चेद्...वन्ध्या च भवेत परेषाम्। अन्ययो. 13. 5. तेषामेव गुणानां तैः प्रदेशैः विशिष्टा भिन्न... प्र.सा.त.प्र. 130. 6. षट् खण्डागम, धवला टीका, 3.1.2.63 7. अद्वैतं न बिना द्वैतादहेतुरिव.....हेतना. आ.मी. 2.27. 8. द्रव्यं च लक्ष्यलक्षण भावादिभ्य....भूतमेवेति मंतव्यम्. पं.का.टी. 9. 9. 1.1.14.242 10. प्र.सा.त.प्र.वृ. 98. 11. द्रव्यगुणानामध्यादेशवशात्....मंतव्यम्. प.का.टी. 13. 45 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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