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का नाम ही सत् है और उत्पाद-व्यय-धोव्य युक्त होना यह पदार्थ का स्वभाव है।'
सभी पदार्थ प्रतिक्षण परिणमन के प्रवाह से गुजरते हैं। जो स्थिति प्रथम समय में थी वह दूसरे समय में नहीं होगी, परंतु परिणमन के कारण सर्वथा नवीनता भी नहीं आती।
पर्याय दृष्टि से वस्तु की उत्पत्ति और विनाश देखे जाते हैं, क्योंकि पर्यायों का परिणमन निर्बाध रूप से हमारे अनुभव में आता है।'
उत्पादित को परस्पर निरपेक्ष ही मान लिया जाये तो उनकी कल्पना आकाशकुसुम की तरह थोथी होगी। अतः उत्पाद-व्यय रूप परिणमन सापेक्ष है। इस परिणमन का कोई अपवाद नहीं है, क्योंकि परिणमन के कारण ही पुण्य, पाप, परलोक गमन, सुखादिफल, बंध और मुक्ति संभव हैं।
“जीव द्रव्य मनुष्य रूप से नष्ट हुआ और देव के रूप में पैदा हुआ", यही परिणमन है। अगर परिणमन स्वभाव नहीं हो, तो क्या सृष्टि में परिवर्तन नजर आता? सृष्टि के परिवर्तन का कारण ही सत् का उत्पाद-व्यय रूप परिणमन है जिसे शास्त्रीय भाषा में अर्थक्रिया भी कहते हैं।
पर्याय परिणमन के कारण ही ऊर्जा में वृद्धि एवं हानि होती है।
सभी पदार्थों में नाना प्रकार की शक्ति है, और वे पदार्थ द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव के अनुसार परिणमन करते हैं और उनकी इस परिणमन की क्रिया में कोई बाधक नहीं बन सकता। जिस प्रकार भव्यत्व शक्ति से युक्त जीव काल लब्धि को प्राप्तकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है उसमें कोई बाधक नहीं बन सकता। . सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन के पहले यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति रूप में और शक्ति को द्रव्य रूप में नहीं बदला जा सकता, परंतु आइंस्टीन ने इस धारणा को खंडित कर दिया। यह माना जाने लगा कि 1. प्र.सा. 99. 2. सर्वव्यक्तिषु नियतं...व्यवस्थानात्...उद्धृतेयम्, अनेकांतवाद प्र.पृ. 51. 3. द्रव्यात्मना सर्वस्य वस्तुन-पर्यायानुसभावात्, षड्. समु. टी. 57.357 4. उत्पाद: केवली प्रतिफ्तव्यौ अष्टस. पृ. 211. पुण्यपाप! न तेषां आ.मी. 3.40 5. मणुसत्तणेण-इदरो वा पं. का. 17. 6. "कामाइ लद्धि जुत्ता-हवे काली" का.प्रे. 10.219
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