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उसमें उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व, बालत्व आदि अनंत भेदोंवाली अनेक परंपराएँ हैं। उन परम्पराओं में निरंतर पुरुष रूप समान प्रतीति का विषय और एक 'पुरुष' शब्द का प्रतिपाद्य जो सदृश पर्याय प्रवाह है वह तो व्यंजन पर्याय और पुरुषरूप में सदृश प्रवाह के अंतर्गत दूसरे बाल, युवा आदि जो भेद हैं, वे अर्थपर्याय हैं। '
जन्म से मृत्यु पर्यंत पुरुष के लिए जो 'पुरुष' संबोधन दिया जाता है, वह व्यंजन पर्याय का उदाहरण है। उस पुरुष के बाल युवा आदि अंश अर्थपर्याय के उदाहरण हैं।" यहाँ अंश का अर्थ पर्याय है।
व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से देखने वाले को 'पुरुष' निर्विकल्प या अभिन्न रूप में दिखता है, और बचपन आदि विकल्प युक्त देखने पर वही ( पुरुष ) अर्थपर्याय के रूप में भिन्न-भिन्न ( बाल, युवा आदि) दिखता है।
व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय का अल्प विवेचन शुभचंद ने भी किया है। उनके अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अर्थपर्याय एवं जीव और पुद्गल में अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार की पर्यायें उपलब्ध होती हैं। *
जैन दर्शन का यह उत्पाद व्यय धौव्य युक्त 'सत्' सिद्धांत 'परिणामी नित्यत्ववाद' कहलाता है। इस सिद्धांत की तुलना 'रासायनिक विज्ञान' के 'द्रव्याक्षरत्ववाद' से की जा सकती है। इस सिद्धांत की स्थापना Lawoisier नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने थी। इसके अनुसार विश्व में द्रव्य का परिणमन सदा होता है, परंतु न्यूनाधिकता नहीं होती । साधारण दृष्टि से जिसे द्रव्य का नाश समझा जाता हैं वह उसका रूपांतर में परिणमन मात्र है, जैसेकोयला जल कर राख हो जाता है। साधारण रूप से इसे नाश होना कहते हैं, परंतु वास्तव में तो वह वायुमंडल ऑक्सीजन अंश के साथ मिलकर कार्बोनिक एसिड गैस के रूप में परिवर्तित हो गया है।
इसी प्रकार
शक्कर या नमक भी पानी में घुलकर नष्ट नहीं होते, परंतु वे ठोस से द्रव में रूपांतरित हो जाते हैं। वस्तुतः नवीन वस्तु की उत्पत्ति
1. सन्मतितर्क 1.30 पर प. सुखलालजी एवं बेचरदास जी का विवेचन
2. पुरिसमि पुरिससद्दी... बहुवियप्पा स. त. 1.32.
3. वंजणपज्जायस्स... अत्यपज्जाओ स. त. 1.34.
4. का. प्रे. टीका 10.220.
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