________________
जैन परम्परा मान्य द्रव्य का लक्षण
भूत और भविष्य को जोड़ने वाला वर्तमान है। अगर वर्तमान न हो तो भूत और भविष्य दोनों महत्वहीन हैं। जिसका हम आज अस्तित्व स्वीकार करते हैं, निःसंदेह अतीत में भी उसका अस्तित्व रहा है और भविष्य में भी रहेगा। अवस्था में परिणमन तो अनिवार्य है, परंतु परिणमन के मध्य कुछ ऐसा अप्रकंप तत्व है जो सर्वदा स्थायी है। दार्शनिक क्षेत्र में द्रव्य उसे ही कहते हैं जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में प्रतिपल परिणमन तो करे, परंतु अपने मौलिक स्वभाव की अपेक्षा नित्य रहे।' सत् और द्रव्य एक ही है; अथवा यह भी कह सकते हैं- जो सत् है, वही द्रव्य है।'
अवस्थाओं का परिणमन उसी में संभव है जो ध्रुव या नित्य रहे। नित्य की अनुपस्थिति में न तो पूर्ववर्ती अवस्था संभव है और न ही उत्तरवर्ती। नित्य का लक्षण उमास्वाति ने इस प्रकार बताया है- जो अपने भाव से कभी च्युत न हो, वह नित्य है।'
उत्पाद, व्यय और धौव्य की इस व्याख्या से युक्त परिणमन की परम्परा से युक्त होकर भी द्रव्य अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं करता। अत: इस सत् (द्रव्य) को त्रिलक्षण ही कहना चाहिये। द्रव्य में न तो मात्र उत्पाद संभव है और न ही मात्र व्यय, और धौव्यता के अभाव में उत्पाद व्यय किसका आश्रित होगा। प्रतिपल उत्पाद व्यय की स्थिति के मध्य भी द्रव्य की अपनी स्वरूप हानि नहीं होती। 1. "उत्पाद व्यय धौव्य युक्तं सत्" त. सू. 5.29. 2. "गोयमा सद्दब्बयाए" भ. 8.9.55. 3. "तद्भावाव्ययं नित्यम्" त. सू. 5.30. 4. एवमस्य स्वभावत एव विलक्षणायां....सत्वमनुमोदनीयम्" प्र.सा.त.प्र.वृ. 99. 5. ण भवो भंगविहीणो....विणा धोब्वेण अत्येण" प्र.सा. 100. 6. पादुन्भर्वाद य अण्णी....उप्पण्णं" प्र.सा. 103.
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org