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उपयोगिता मात्र वर्णनात्मक ही नहीं, अपितु आचारात्मक भी है, क्योंकि मात्र ज्ञान के द्वारा ही दुःख से मुक्ति नहीं होती, अपितु उसके लिए रत्नत्रयरूप ज्ञान, दर्शन और चारित्र, तीनों ही आवश्यक हैं।' यह स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि भारत में दर्शन और धर्म अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं। दर्शनशास्त्र की कसौटी पर कसा जाने वाला तत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित होता है। इसी कारण भारतीय दर्शन में आत्मा मुख्य तत्त्व बना, क्योंकि हेय और उपादेय का ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता आत्मा में ही पायी जाती है। 2 बृहदारण्यकोपनिषद् में आत्मा को सर्वप्रिय तत्त्व कहा गया है। " तैत्तिरीय उपनिषद् में तो आत्मा को ब्रह्म ही कह दिया गया है। 4 मुण्डकोपनिषद् में उस विद्या को श्रेष्ठतम बताया गया है जो ब्रह्मविद्या से अनुप्राणित हो । ' युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को अपनी विभूतियों के विराट् स्वरूप के बारे में बताते श्री कृष्ण ने समस्त विद्याओं में अध्यात्मविद्या को उत्कृष्टतम विद्या बताया है । "
भारत में दर्शनशास्त्र लोकप्रिय रहा है, और उसकी लोकप्रियता का कारण यदि आचार और विचार दोनों से इसका अनुस्यूत होना कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
यदि भारतीय दर्शन ने मात्र दुःखों का विवेचन ही किया होता तो हम कह सकते थे कि यह एक निराशावादी विचारपद्धति है, परंतु इसने तो पूर्ण समाधान का मार्ग भी प्रशस्त किया है; और यही नहीं कि मात्र कुछ आत्माएँ ही स्थायी सुख शांति उपलब्ध कर सकती हैं, अपितु जो भी आत्मा ज्ञान, दर्शन और संयममय होती है, वह निर्वाण या मोक्ष के असीम और अक्षय आनंद को प्राप्त कर सकती है। '
धार्मिक एवं दार्शनिक उदारता के कारण ही भारतीय दर्शन निरंतर पनपता रहा। और यही वैचारिक उदारता एवं आचार द्वारा लक्ष्यप्राप्ति का आश्वासन इसकी विशेषता एवं महत्ता को प्रतिपादित करती है।
1. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” त.सू. 1.1.
2. यस्यैवामूर्तस्यात्मनः... विषयात्मकेन निरंतरं ध्यातव्यः बृ.उ.सं.
3. बृहादारण्यकोपनिषद् 2.1.5
4. तैतिरीयोनिषद् 1.5
5. " स ब्रह्मविद्यां सर्वविधाप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय आह" मु. उ. 1.1
6. अध्यात्मविद्या विद्यानां
प्रवदतामहम् गीता 10.32.
7. संपज्जदि णिव्वाणं...... दंसणणाणप्पहाणादी। प्र. सा. 6.
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