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भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में एकता एवं सामंजस्यः-स्वयं के एवं सृष्टि के स्वरूप को समझने के लिए भारतीय उर्वरा भूमि पर विभिन्न विचारधाराओं का आविर्भाव हुआ। विभिन्न विचारधाराओं के मध्य भी कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो एकता की अनुगूंज को प्रखर करते हैं। स्वयं मेक्समूलर ने विभिन्न दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि 'दर्शन की परस्पर भिन्नता की पृष्ठभूमि में एक ऐसे दार्शनिक ज्ञान का भंडार है जिसे हम राष्ट्रीय या सर्वमान्य दर्शन कह सकते हैं; एवं जिसकी तुलना हम उस मान सरोवर से कर सकते हैं जो यद्यपि सुदूर प्राचीन काल रूपी दिशा में अवस्थित था, तो भी उसमें से प्रत्येक विचार को अपने उपयोग के लिए सामग्री प्राप्त हो जाती थी। जैन दार्शनिकों के अनुसार एकांतवादी समस्त विचारधाराएँ असत्य और मिथ्या हैं परंतु जब वही सापेक्ष रूप से प्रतिपादित की जाती हैं तो सत्य बन जाती हैं। इसे ही उन्होंने स्याद्वाद कहा है। इस प्रकार से स्याद्वाद रूपी सिद्धांत द्वारा जैन दार्शनिकों ने समस्त दर्शनों की ग्राह्यता एवं उपयोगिता स्पष्ट की है। इस देश के विचारकों की उत्कृष्टता के कारण ही मनु ने कहा कि संपूर्ण संसार ने इस भारतीय धरा पर अवतरित चारित्रिकों से चरित्र की शिक्षा ली।
मूलरूप से छह विचारधाराओं का अस्तित्व आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्वीकार किया है- 'बौद्ध, न्याय, सांख्य, जैन, वैशेषिक, एवं मीमांसक।' डा. राधाकृष्णन् अपने 'भारतीय दर्शन' में इन छह दर्शनों को स्वीकार करते हैंन्याय, वैशेषिक,सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा। भारतीय विचारक यद्यपि प्रवृत्त होता है संसार की दुःखमय प्रवृत्ति देखकर ही, परंतु वह निराशा या कुण्ठा से हताश होकर चुपचाप तो नहीं बैठ जाता, प्रत्युत आगे बढ़ता है। सांख्यकारिका के आरंभ में विचारशास्त्र की प्रवृत्ति का यही कारण बताया है। जैन दर्शन ने द्रव्यों का विवेचन एवं उन्हें समझने का कारण इसी दुःखनिवृत्ति को बताया है। अतः हम निःसंकोच कह सकते हैं कि दर्शन की 1. मैक्समूलर-सिक्स सिस्टम्स ऑफ इण्डियन फिलॉसॉफी पृष्ठ 17 2. सर्वदर्शनसंमत... समीचीनामंचति" षड्दर्शन. टीका 1.4, स्याद्वाद..... हेयादेय विशेषकः, आ.मी. 10.104,
त. शयो. पृष्ठ 136, न्याय कुसु. पृ. 3 एवं रलकराव पृ. 15 3. एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः" मनुस्मृति 2.10 4. बौद्धनैयायिक... ममून्यही" षड्दर्शन. 3 5. भारतीय दर्शन 2 पृष्ठ 17 6. “दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ” सा.का.का. 1. 7. एवं पवयणसारं, पंचत्थियसंगहं वियाणिन्ता। जो मुयदि रारेसि, सो गार्हाद दुक्खपरिमोक्खं प.का. 103.
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