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पकड़ना जैन, दर्शन के शब्द की पुद्गल व्याख्या को ही मान्यता देता है। शब्द आकाश का गुण इसलिये भी नहीं हो सकता कि आकाश तो नित्य है और शब्द अनित्य। यद्यपि यह कहा जाता है कि रामायण और महाभारत कालीन शब्द भी विज्ञान द्वारा कभी न कभी प्रकट किया जायेगा, परन्तु यह मानना असंभव है।
विज्ञान उसी कार्य की क्रियान्विति कर सकता है, जो संभव है। अगर विज्ञान से यह अपेक्षा रखी जाए कि वह समाप्त हुए शरीर को पुनः वैसा ही बना दें या व्यतीत हुई ऋतुओं को पुनः आमंत्रित करे तो यह असंभव होगा। अतः हम कह सकते हैं कि शब्द गुण नहीं, पर्याय है क्योंकि वह अनित्य है। गुण इसलिए भी नहीं है कि शब्द उत्पन्न होता है। गुण कभी उत्पन्न नहीं होता। गुण कालिक होते हैं। नित्य आकाश का अनित्य शब्द गुण कैसे हो सकता है? अगर शब्द नित्य और स्थायी होता तो आज सर्वत्र शोर ही शोर होता और भयंकर अशांति का माहौल हो जाता। फिर खामोशी या निस्तब्धता संभव ही नहीं थी। परन्तु ऐसा नहीं है। इसी से लगता है, शब्द न आकाश का गुण है, न पुद्गल। का वह तो मात्र पुद्गल की अशाश्वत पर्याय है।
शब्द आकाश का गुण इसलिये भी संभव नहीं है कि आकाश अमूर्तिक और स्थिर है। उसमें किसी प्रकार के कंपन की संभावना नहीं है, जबकि शब्द तो साक्षात् कंपन है। किसी बजते हुए घंटे पर हाथ रखकर देखें तो हमें इस बात का विश्वास हो जायेगा। जब तक कंपन है, तभी तक शब्द है। ज्योंहि कंपन रुका, शब्द तुरंत बन्द हो जाएगा। अतः यह तर्क और विज्ञान दोनों द्वारा प्रमाणित है कि शब्द पुद्गल की ही क्षणिक पर्याय है न कि आकाश का गुण।
शब्द कंपन के कारण होता है। पुद्गल में प्रकट होने वाला कंपन वायु मंडल में आ जाता है और वायुमण्डल सर्वत्र विद्यमान होने से उस कंपन का भी स्पर्श कर लेता है। उसी वायुमंडल का वह कंपन हमारे कानों का भी स्पर्श करता है, अतः जो शब्द हम सुनते हैं, वह उस वायु का ही कंपन है। अगर वायु विपरीत दिशा में बह रही है तो हमको वह शब्द सुनाई नहीं देता क्योंकि वह कंपन वायु की दिशा में बह जाता है और अगर वायु हमारी दिशा में बह रही हो तो दूर का शब्द भी सहज ही सुनने में आ जाता
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