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________________ यह नहीं कि जीव और पुद्गल को ये जबरन गति या स्थिति हेतु प्रेरित करते हैं। इन दोनों द्रव्यों में परिणमन भी शुद्ध होता है। द्रव्य का मूल स्वभाव परिणमन है और इस परिणमन स्वभाव के कारण पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय को धारण करने का क्रम अनादि काल से सतत चालू है और यह प्रवाह अनंतकाल तक चालू ही रहेगा। इन दोनों तत्वों को मानने की अनिवार्यता इसलिए पैदा हुई कि किसी ऐसे तत्त्व की आवश्यकता थी जो जीव और पुद्गलों के गति और स्थिति को नियंत्रित करे। आकाश एक अमूर्त, अखण्ड, और अनंत प्रदेशी द्रव्य है। उसकी सत्ता सर्वत्र समान है, अतः उसके इतने प्रदेशों तक पुद्गल और जीवों का गमन है, आगे नहीं। यह नियंत्रण अखण्ड आकाश द्रव्य नहीं कर सकता क्योंकि उसमें प्रदेश भेद होने पर भी स्वभाव भेद नहीं है। जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य भी गति और स्थिति में सहायक नहीं बन सकते क्योंकि वे तो स्वयं गति और स्थिति करने वाले हैं। काल मात्र परिवर्तन स्वभावी है। अतः धर्म और अधर्म द्रव्य को लोक और अलोक के मध्य विभाजक तत्त्व की मान्यता दी और उसे गति स्थिति में उदासीन सहायक द्रव्य के रूप में स्थापित किया। आकाश द्रव्यः-समस्त जीव-अजीव का आश्रय दाता/स्थान देने वाला आकाश तत्त्व है। जैन दर्शन ने आकाश का गुण अवगाह माना है जबकि न्याय वैशेषिक ने शब्द को आकाश का गुण माना है, परन्तु शब्द पौद्गलिक इन्द्रियों से गृहीत है, पुद्गलों से टकराता है, स्वयं पुद्गलों को रोकता है और पुद्गलों से भरा जाता है, अतः वह पौद्गलिक ही हो सकता है। जैन दर्शन शब्द को पुद्गल की भाषावर्गणा मानता है। शब्द के आश्रित द्रव्य परमाणु इन्द्रिय का विषय होने से वायु की अनुकूलता पर दूर स्थान पर खड़े श्रोता तक पहुँच जाते हैं और वायु की प्रतिकूलता पर समीप बैठे श्रोता तक भी नहीं जा पाते। अतः जिस प्रकार गंध इन्द्रिय का विषय होने के कारण पौद्गलिक है, वैसे ही शब्द भी इन्द्रिय का विषय होने से पौद्गलिक है। आज विज्ञान के क्षेत्र में भी शब्द का पौद्गलिक स्वरूप सिद्ध हो चुका हैं। टी.वी. टेलीफोन, रेडियो आदि यंत्रों के माध्यम से शब्दों की तरंगों को 216 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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