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________________ मन-मन भी पुद्गल का समूह है। यह मनन करते समय ही मन कहलाता है। मन आत्मा नहीं है, अत: पुद्गल है। मन का भेदन होता है, अतः पुद्गल है। मन चार प्रकार का है-सत्यमन, असत्यमन, मिश्र मन, व्यवहार मन।' पुद्गल का स्वभाव चतुष्टयः-पुद्गल का विशद परिचय प्राप्त करने के लिये उसे चार दृष्टिकोणों से विश्लेषित किया गया है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य की अपेक्षा अनंत द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है। काल की अपेक्षा शाश्वत है (परमाणु की अपेक्षा) और भाव की अपेक्षा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से युक्त हैं और गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण की योग्यता वाला है।' जिनेन्द्रवर्णी ने इसे और ज्यादा स्पष्ट किया है। स्वभाव को धारण करने वाले जो भी है, उसे द्रव्य कहते हैं। उसके आकार को क्षेत्र कहते हैं। उसके अवस्थान को काल कहते हैं तथा उसके धर्म और गुण को भाव कहते हैं। स्वद्रव्य की अपेक्षा सामान्य रूप से पुद्गल द्रव्य एक है, परंतु प्रदेशात्मक परमाणु अनंतानंत है। एक बालाग्र स्थान पर अनंतानंत परमाणु रहते हैं। स्वक्षेत्र की अपेक्षा सामान्य रूप से परमाणु एक प्रदेशी है, परंतु विशेष रूप से छोटे-बड़े आकारों को धारण करने वाले स्कंध अनेक प्रकार के हैं, कुछ संख्यात, कुछ असंख्यात और कुछ अनंतप्रदेषी हैं। स्वकाल की अपेक्षा पुद्गल अनित्य हैं क्योंकि वे उत्पाद, विनाश करते रहते हैं। स्वभाव की अपेक्षा पुद्गल मूर्तिक है, इन्द्रियगोचर हैं। गुण की अपेक्षा पुद्गल में वर्ण, गंध, रस, तथा स्पर्श पाये जाते हैं। पुद्गल के उपकारः-समारी जीव पुद्गल के अभाव में रह ही नहीं सकते। उनकी समग्रता पुद्गल द्वारा ही संपन्न होती है। हमारा शरीर (जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है) पुद्गल की ही देन है। भाषा, मन, प्राण, अपान आदि सब पुद्गल का ही उपकार है।' जीवन में प्राप्त सुख, दुःख, जीवन, मरण आदि समस्त पुद्गल के ही 1. भगवती 13.7 10-14 2. ठाणांग 5.174 3. जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान पृ. 163.64 206 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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