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परिवर्तन रूप कोई भी कार्य बिना कारण हो नहीं सकता। इसलिये कोई न कोई सत्ताभूत पदार्थ इसका कारण होना चाहिये, यह सत्ताभूत पदार्थ ही निश्चयकाल है।
व्यवहार और निश्चय काल में अंतरः-मुख्य काल के अस्तित्व की सूचना देने के लिये स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया गया है। व्यवहार काल पर्याय और पर्यायों की अवधि का परिच्छेद करता है।' व्यवहार काल जीव
और पुद्गल के परिणमन का आधार होता है और निश्चयकाल अणुरूप और इन्द्रियानुभवातीत है।
कालचक्र की अवधारणा:-जैन दर्शन में कालचक्र की अवधारणा दो भागों में विभक्त करके की है। एक नीचे से ऊपर अर्थात् दुःख से सुख की ओर जाने वाला और दूसरा ऊपर से नीचे आनेवाला अर्थात् सुख से दुःख की ओर आने वाला। जैसे गाड़ी का पहिया घूमता है अर्थात् पहिये का नीचे वाला भाग ऊपर आता है और पुनः नीचे जहाँ से चला था वहाँ पहुँच जाता है, इसी प्रकार काल का पहिया भी बराबर घूमता रहता है। सुख से दुःख की दिशा में जाने वाला अवसर्पिणी और दुःख से सुख की दिशा में जानेवाला भाग उत्सर्पिणी काल कहलाता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी यह दोनों मिलकर पूरा एक काल चक्र बन जाता है। इसे युग भी कहते हैं।'
उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी दोनों ही को छह भागों में विभक्त करके पूरे काल को 12 विभागों में विभाजित किया गया है। उत्सर्पिणी काल क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ता है अतः दुखमा-दुखमा, दुखमा, दुखमा-सुखमा, सुखमादुखमा, सुखमा, सुखमा-सुखमा। अवसर्पिणी काल ठीक इसके विपरीत चलता है। सुखमा-सुखमा, सुखमा, सुखमा दुखमा, दुखमा सुखमा, दुखमा और दुःखमा दुःखमा।'
वर्तमान में अवसर्पिणी का पाँचवां भाग चल रहा है अर्थात् उत्तरोत्तर नैतिक तथा आध्यात्मिक शांति की हानि होती जा रही है।
काल के ज्ञान की आवश्यकता :-काल हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है।
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1. त. रा. वा. 1.8.20.43 2. ठाणांग 2.74 3. ठाणांग 6.23,24
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