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(1) प्रमाण काल क्या है इसे स्पष्ट करते हुए भगवन् ने कहा- प्रमाण काल दो प्रकार का है, दिवस प्रमाणकाल और रात्रिप्रमाणकाल । '
जिससे रात्रि, दिवस, वर्ष, शतवर्ष आदि का प्रमाण जाना जाय, उसे प्रमाणकाल कहते हैं।
(2) यथायुर्निवृत्तिकाल - आत्मा ने जिस प्रकार की आयु का बंध बांधा है उसी प्रकार उसका पालन करना, भोगना, यथायुर्निवृत्ति काल है।
( 3 ) मरणकाल - शरीर का जीव से या जीव का शरीर से वियुक्त होना, अलग होना मरणकाल है।
(4) अद्धाकाल - अनेक प्रकार का है। सूर्यचन्द्र आदि की गति से संबंध रखने वाला अद्धाकाल है।
काल का मुख्य रूप अद्धाकाल है, शेष तीनों इसके विशिष्ट रूप है। अद्धाकाल व्यावहारिक है। वह मनुष्य लोक में ही होता, और इसलिये मनुष्य लोक को समय क्षेत्र कहा जाता है। निश्चय काल जीव अजीव का पर्याय है, वह लोकालोक व्यापी है, उसके विभाग नहीं होते। समय से लेकर पुद्गल परावर्त तक के जितने विभाग हैं, वे सब अद्धाकाल के हैं। समय उसे कहते हैं जो अविभाज्य हैं। इसको कमलपत्रों के भेदन एवं वस्त्र विदारण द्वारा स्पष्ट समझा जा सकता है(क) एक दूसरे से सटे हुए सौ कमल के पत्तों को कोई बलवान् व्यक्ति सुई से छेद देता है, तब ऐसा ही लगता है कि सब पत्ते एक साथ छिद गये, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता कि सब पत्ते एक साथ छिद गये। जिस समय पहला पत्ता छेदा गया, उस समय दूसरा नहीं। सभी अलगअलग समय में ही छेदे जाते हैं और यह क्रमशः होता है।
(ख) एक कलाकुशल युवा और बलिष्ठ जुलाहा जीर्ण शीर्ण वस्त्र या साड़ी को शीघ्र ही फाड देता है और इतनी शीघ्र यह क्रिया होती है कि ऐसा लगता है कि एक ही समय में सारा वस्त्र फट गया, परंतु ऐसा होता नहीं । वस्त्र अनेक तंतुओं से बनता है, जब तक ऊपर के तंतु नहीं फटते, तब तक नीचे के तंतु नहीं फटते । अतः यह निश्चित है कि वस्त्र फटने में काल भेद होता है।
1. भगवती 11.117,8
2. भगवती 11.11.46
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