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यह वर्तना लक्षण युक्त काल परमार्थ काल है।'
द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। अगर ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य हो जाता है, जैसे शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय पढ़ाते हैं, यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है। पूज्यपाद इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि निमित्त मात्र में हेतुकर्ता रूप कथन (व्यपदेश) देखा जाता है "जैसे कंडे को अग्नि पकाती है" यहाँ कंडे की अग्नि निमित्तमात्र है, उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।'
परिणाम क्या हैः-द्रव्य में अपनी स्वद्रव्यत्व जाति को नहीं छोड़ते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है, उसे परिणाम कहते हैं। द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है, फिर भी द्रव्यार्थिक की अविवक्षा और पर्यायार्थिक की प्रधानता में उसका व्यवहार पृथक् हो जाता है। परिणाम का तात्पर्य यही है कि अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हुए पूर्वपर्याय का विनाश और उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना ही परिणमन है।
परिणाम दो प्रकार का होता है-एक अनादि, दूसरा आदिमान। लोक की रचना, सुमेरु पर्वत आदि के आकार अनादि परिणाम है। आदिमान परिणाम दो प्रकार का है-एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक। चेतन द्रव्य के औपशमिकादि भाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं, जिनमें पुरुषप्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वाभाविक परिणाम कहलाते हैं। ज्ञान, शील, भावना आदि गुरु के उपदेश से होते हैं। अत: ये प्रयोगज परिणाम है और मिट्टी आदि में कुम्हार द्वारा होने वाला अचेतन परिणमन प्रयोगज अचेतन परिणमन है। इन्द्रधनुष आदि परिणमन स्वभाविक अचेतन परिणमन है।'
क्रिया क्या है: बाह्य और आभ्यंतर निमित्तों से द्रव्य में होने वाला परिस्पंदात्मक परिणमन क्रिया है। वह दो प्रकार की है - प्रायोगिक और स्वाभाविक। बैलगाड़ी आदि में प्रायोगिक तथा बादल आदि में स्वाभाविक क्रिया होती है। 1. "परमार्थकालो वर्तनालक्षणः" स. सि. 5.22.569 2. स.सि. 5.22.569
3. त.वा. 5.22.10.477.78 4. रा. वा. 5.22.19.481 एवं स.सि. 5.22.569
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