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फिर अलोक बना या प्रथम अलोक फिर लोक बना। भगवान् ने कहा- रोह ! ये दोनों शाश्वत हैं। इनमें पहले पीछे का क्रम संभव नहीं है । '
आकाशास्तिकाय द्रव्य से जीवों और अजीवों पर क्या उपकार होता है ? गौतम स्वामी ने महावीर से पूछा। भगवान ने कहा- आकाशास्तिकाय से ही तो पाँचों द्रव्य आधार प्राप्त करते हैं। आकाश में ही तो धर्म अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं। जीवों को अवगाहन भी आकाश देता है। काल भी आकाश में ही बरतता है। पुद्गलों का रंगमंच भी आकाश बना हुआ है। 2
बिक्:
आकाश के जिस भाग से वस्तु का व्यपदेश या निरुपण किया जाता है, वह दिशा कहलाती है।
अनुदिशा और दिशा की उत्पत्ति तिर्यक् लोक से होती है। दिशा का प्रारंभ आकाश के दो प्रदेशों से शुरु होता है। उनमें दो- प्रदेशों की वृद्धि होतेहोते वे असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती है। अनुदिशा केवल एक देशात्मक होती है। ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारंभ चार प्रदेशों से होता है। बाद में उनमें वृद्धि नहीं होती । "
आचारांग का प्रारंभ ही दिशा की विवेचना के साथ हुआ है। आचारांग में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्जा और अध: दिशाओं का नामोल्लेख प्राप्त होता है । "
जिस व्यक्ति के जिस ओर सूर्योदय होता है, वह उसके लिये पूर्व 'जिस तरफ अस्त होता है; वह पश्चिम दिशा है। दाहिने हाथ की ओर दक्षिण बांई ओर उत्तर दिशा होती है। इन्हें ताप दिशा कहा जाता है। '
निमित्त कथन आदि प्रयोजन के लिये दिशा का एक प्रकार और होता है। प्रज्ञापक जिस ओर मुँह किये होता है उसे पूर्व, उसके पृष्ठ भाग में पश्चिम दोनों ओर दक्षिण तथा उत्तर दिशा होती हैं, इन्हें प्रज्ञापक दिशा कहते हैं । '
1. भगवती 1.6.17, 18
2. भगवती 13.4.25
3. दिश्यते व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्तवनयेति दिकू स्या. वृत्ति 3.3
4. आचारांग नियुक्ति 42.44
5. आचारांग 1.1.1
6. आचारांग नियुक्ति 47.48
7. आचारांग नियुक्ति 51.
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