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का भी विस्तार क्रमशः घटना प्रारंभ हो जायेगा, परंतु हमें इस परिवर्तन का कोई अनुभव नहीं होगा। यद्यपि हमारा वेग वही दिखेगा, परंतु वस्तुतः वह घट जायेगा और हम कभी सीमा तक नहीं पहुंच पायेंगे। अतः यदि अनुभव के आधार पर कहें तो हमारा विश्व अनंत है, परंतु वस्तु वृत्या हम अंत को पा नहीं सकते। हमारी पहुँच एक सीमा तक है, उसके बाद आकाश अवश्य है, परंतु हमारी पहुँच से बाहर है।''
पोइनेकर ने यह बताने का प्रयास किया है कि हमारे विश्व के उष्णतामान का विभागीकरण इस प्रकार है कि ज्यों-ज्यों हम सीमा के समीप जाने का प्रयत्न करते हैं, त्यों त्यों हमारे वेग में और विस्तार में कमी होती है। परिणामतः हम सीमा को प्राप्त नहीं कर सकते। ठाणांग में आये सूत्र को हम इससे जोड़ सकते हैं-"लोक के सब अंतिम भागों में अबद्ध, पार्श्व, स्पष्ट, पुद्गल होते हैं। लोकांत तक पहुँचते ही सब पुद्गल स्वभाव से ही रुक्ष हो जाते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संगठित नहीं हो सकते, इसलिये लोकांत से आगे पुद्गलों की गति नहीं हो सकती। यह एक लोक स्थिति है।'
रुक्षत्व परमाणुओं का मूलगुण माना गया है। कुछ प्रमाणों के आधार पर यह एक प्रकार का (ऋण अथवा धन) विद्युत् आवेश हो ऐसा लगता है। पोइनेकर के अभिमत को यदि जैन दर्शन के विवेचित सिद्धांत का केवल शब्दांतर ही माना जाय तो अबद्ध, पार्श्व, स्पष्ट, पुद्गल का अर्थ वास्तविक शून्य तापमान वाले पुद्गल हो सकता है। कुछ भी हो, दोनों उक्तियों के बीच साम्य है। यह स्पष्ट है कि पोइनेकर ने आकाश की सांतता और परिमितता के अंतर को स्पष्ट करने के लिये उक्त विचार दिया है, जबकि जैन दर्शन ने लोकाकाश की सांतता और अलोकाकाश में गति स्थिति अभाव के कारण के रूप में उक्त तथ्य बताया है।'
__ भाव यह है कि आधुनिक विज्ञान जैन दर्शन में वर्णित आकाश के स्वरूप को स्वीकार करता है तथा दोनों में समानता भी है।
लोकालोक का पौर्वापर्यः-आर्य रोह ने पूछा -भगवन्! प्रथम लोक और 1. दी नेचर ऑफ दी फिजीकल रियालिटी पृ. 163 तथा फाउंडेशन्स ऑफ साइंस पृ. 175 2. “सर्ववसु वि णं लोगत्तेषु अबद्ध पासपुट्टा पोग्गला लुक्खताए केजति जेणं, जीवा य पोग्गला य णो संचायति ___ बहिया लोगता गमणयाए-एवंप्पेगा लोगाट्ठिति पण्णता" ठाणांग 0.10 3. जैन भारती 15 मई, 1966
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