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है।
दो सौ
सवा दो सौ पृष्ठों में षड्-द्रव्यों का स्पष्ट विवेचन विवेचित
हुआ है।
बहिन साध्वी विद्युत्प्रभा की प्रज्ञा / प्रतिभा इस ग्रन्थ में प्रखरता से अभिव्यक्त
हुई है।
संघीय शासन में एतद्विषयक ग्रन्थों का प्रायः अभाव है। निश्चित ही यह ग्रन्थ शासन - गौरव का वजन भरा प्रतीक बना है। शोध-प्रबंध के विषय - निर्धारण के समय मैं कभी - कभी व्यावहारिक / बाह्य भावों में डूबकर व आदरणीय श्री कोठारीजी के स्वरों में स्वर मिला कर कहता- कोई सामान्य / सरल विषय लेकर शीघ्र ही प्रबन्ध की पूर्णाहुति कर उपाधि लेकर डॉक्टर बन जाओ ।
तो कभी-कभी गहराई भरे चिंतन का गंभीर स्वर प्रकट होता कोई ऐसा विषय चुनो तो मात्र उपाधि का कारण बन कर ही न रह जाय, अपितु स्व-पर कल्याण का आधार भूत हेतु बने । विद्युत्प्रभा ने मेरे इसी निर्देश को स्वीकार कर इस गहन विषय का चुनाव किया और तलस्पर्शी अध्ययन के फल-स्वरूप इस अत्यन्त उपयोगी व गूढ़ ग्रन्थ का सर्जन किया । परम विदुषी, आगम-ज्योति स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रमोद श्रीजी महाराज का इसे पूर्ण, परोक्ष आशीर्वाद मिला।
पूज्य माताजी महाराज श्री रतनमाला श्रीजी म. का वात्सल्य - पूर्ण सान्निध्य मिला। और इस ग्रन्थ का सर्जन हो गया।
मेरी कामना है, यह ग्रन्थ उन सभी जिज्ञासुओं के लिए पूर्ण उपयोगी M व आदरणीय बनेगा जो तर्कबद्ध शैली व तुलनात्मक दृष्टिकोण से जैनदर्शन के द्रव्य स्वरूप का अध्ययन करना चाहते हैं। बहिन साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा अपने चिन्तन के नवोन्मेष धरातल पर दर्शन की गहरी गुत्थियाँ सुलझाने वाले और नये-नये ग्रन्थों का नवसर्जन करती रहे, यही मेरे मानस की आशा है।
महिने
इन्दौर 5-10-1994
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( मणिप्रभसागर )
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