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अगर धर्मास्तिकाय की कल्पना नहीं होती तो पुद्गल और जीव की गति में निमित्त कौन होता? क्योंकि जीव और पुद्गल तो स्वयं उपादान कारण है। हवा स्वयं गतिशील है तो पृथ्वी, पानी लोक में सर्वत्र व्याप्त नहीं है। अतः हमें ऐसी शक्ति की अपेक्षा है जो स्वयं गतिशून्य और संपूर्ण लोक में व्याप्त हो, साथ ही अलोक में नहीं । '
अधर्मास्तिकाय का स्वरूप एवं लक्षणः-अधर्मास्तिकाय वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श रहित है अर्थात अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोक प्रमाण है एवं जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक तत्व है। 2 उत्तराध्ययन सूत्र में भी अधर्म को स्थिति लक्षण वाला सूचित किया है । "
तत्वार्थ सूत्र के अनुसार भी जीव और पुद्गल की स्थिति में उदासीन सहायक को अधर्मास्तिकाय कहा है । "
श्री पूज्यपाद ने अधर्मास्तिकाय का उदाहरण देते हुए बताया कि जिस प्रकार घोडे को ठहरने में पृथ्वी साधारण निमित्त है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल को ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है । "
लघु द्रव्य संग्रह के अनुसार स्थित होते जीवों और पुद्गलों को जो स्थिर होने में सहकारी कारण हैं उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं, जैसे छाया यात्रियों को स्थिर होने में सहकारी है, परंतु वह गमन करते जीव और पुद्गल को स्थिर नहीं करती। '
षड्दर्शन समुच्चय की टीका में भी अधर्मास्तिकाय के इसी लक्षण को पुष्ट किया है।' अधर्मास्तिकाय का अपना कोई स्वतंत्र कार्य नहीं है। स्थूल रुकना तो स्पष्ट दृष्टि गत होता है, परंतु सूक्ष्म स्थिति तो दृष्टिगत होती नहीं है। परंतु सूक्ष्म ठहरना पदार्थ के मुडने के समय होता है। चलता चलता ही पदार्थ यदि मुडना चाहे तो उसे मोड पर जाकर क्षणभर ठहरना पड़ेगा।
1. प्रज्ञापना वृ. प. 1
2. भगवती 2.10.2 एवं ठाणांग 5.171
3. अधम्भो ठाण लक्खणो उत्तरा 28.9
4. त. सू. 5.17
5. स. सि. 5.17.599
6. लघु द्रव्य संग्रह 9
7. षड्दर्शन समुच्चयटीका 49.169
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