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को लाठी न तो गति में प्रेरणा देती है, न कर्ता बनती है और न दर्शन शक्ति के अभाव में दीपक दर्शन की शक्ति उत्पन्न कर सकता है, लाठी और दीपक तो मात्र सहयोगी बनते हैं । '
जिस गति सहायक पदार्थ को जैन दर्शन ने धर्मास्तिकाय कहा, आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के परिणामस्वरूप उसी से मिलते हुए द्रव्य को विज्ञान ने “ईथर” कहा है।
18वीं / 19वीं शताब्दि में भौतिक विज्ञानवेत्ताओं के सामने एक बात स्पष्ट हो गयी कि यदि प्रकाश की तरंगों का अस्तित्व है तो उसका कोई आधार अवश्य होना चाहिये जैसे पानी सागर की तरंगों को पैदा करता है और हवा उन कंपनों को जन्म देती है जिन्हें हम ध्वनि कहते हैं। जब यह लगा कि प्रकाश शून्य से भी होकर विचरण करता है, तब वैज्ञानिकों ने " ईथर " तत्व की कल्पना की, जो उनके अनुसार समस्त आकाश और ब्रह्माण्ड में व्याप्त
है।
बाद में फैरेडे ने एक अन्य प्रकार के " ईथर " की कल्पना की जो विद्युत् एवं चुंबकीय शक्तियों का वाहक माना गया । अन्ततः यह " ईथर " की निश्चित और स्पष्ट मान्यता मेक्स्वेन वैज्ञानिक के बाद सिद्धांत रूप में स्वीकार कर ली गयी। उन्होंने प्रकाश को “विद्युत चुंबकीय विक्षोभ " ( Electromagnatic disturbance) के रूप में मान्यता दी। अब ईथर का स्वरूप और अस्तित्व निश्चित सा हो गया। 2
अमेरिकन भौतिक विज्ञानवेत्ता ए. ए. माइकेलसन और ई. यू मोरले ने क्लीवलेण्ड में सन् 1881 में ईथर के संबंध में एक भव्य परीक्षण किया।
उस परीक्षण के पीछे उनका तर्क था कि यदि संपूर्ण आकाश केवल ईथर का गतिहीन सागर है तो ईथर के बीच पृथ्वी का ठीक उसी तरह पता लगना चाहिये और पैमाइश होना चाहिये जैसे नाविक सागर में जहाज के वेग नापते हैं। नाविक जहाज की गति का माप सागर में लट्ठा फैंककर और उससे बंधी रस्सी की गांठों के खुलने पर नजर रखकर लगाते है । अतः मोरले और माइकेलसन ने लट्ठा फेंकने की क्रिया की । यह लट्ठा प्रकाश
1. त.वा. 5.17.24.463
2. डॉ. आइन्स्टीन और ब्रहाण्ड लिंकन बारनेट पृ 42
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