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________________ ७६ कर्म साहित्य मूलक साहित्य प्राकृत में लिखा गया है पर टीका साहित्य संस्कृत में भी मिलता है। शाम कुण्ड ने कर्म प्राभृत और कषाय प्राभृत पर प्राकृत संस्कृत-कन्नड़ मिश्रित भाषाओं में बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी पर वह आज उपलब्ध नहीं । इसी प्रकार समन्तभद्र ने भी कर्मप्राभृत पर ४८००० श्लोक प्रमाण सुन्दर संस्कृत भाषा में टीका लिखी, पर वह भी आज नहीं मिलती। उपलब्ध टीकाओं कर्मप्राभृत (षट्खण्डागम) पर वीरसेन द्वारा लिखी प्राकृत संस्कृत- मिश्रित, धवला टीका उल्लेखनीय है जो ७२००० श्लोक प्रमाण है। इसके बाद उन्होंने कषायप्राभृत की चार विभक्तियों पर २०००० श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी जो पूरी नहीं हो सकी। उस अधूरे काम को जयसेन (जिनसेन) ने ४०००० श्लोक प्रमाण में लिखकर पूरा किया। १ कषायपाहुड की रचना आचार्य गुणधर (ई. द्वितीय शती) ने तथा कर्मप्राभृत (षट्खण्डागम) की रचना पुष्पदन्त भूतबलि (प्रथम शताब्दी) ने शौरसेनी प्राकृत में की थी। यहाँ कषायप्राभृत पर संस्कृत में लिखी गई वीरसेनजिनसेनकृत जयधवला टीका (शक संo ७३८) ही विशेष उल्लेखनीय है । यह साठ हजार श्लोक प्रमाण बृहतकाय ग्रन्थ है । ये दोनों ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं। उत्तरकालीन पञ्चसंग्रह आदि कर्मग्रन्थ इन्हीं के आधार पर लिखे गये हैं। षड्खण्डागम और कषायपाहुड की भाषा शौरसेनी है जिसका पूर्वरूप हमें अशोक के गिरनार शिलालेख ( ई० पू० ३री शती) में मिलता है। धवला टीका मणिप्रवाल शैली (गद्यात्मक प्राकृत तथा क्वचित् संस्कृत) में लिखी गई है। उसमें प्राकृत के तीन स्तर मिलते हैं - १. सूत्रों की प्राकृत जो प्राचीनतम शौरसेनी के रूप में है, २. उद्घृत गाथाओं की प्राकृत, और ३. गद्य प्राकृत। यहाँ शौरसेनी प्राकृत के साथ-साथ अर्धमागधी प्राकृत की कतिपय विशेषतायें दृष्टव्य हैं। भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत के ये तीन स्तर उसके भाषा विकासात्मक रूप में परिचायक हैं। शौरसेनी के महाराष्ट्री प्राकृत का मिश्रण उत्तरकाल में मिलने लगता है । दण्डी के अनुसार शौरसेनी ने ही महाराष्ट्र में नया रूप धारण किया जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहा जाता है। वही उत्कृष्ट प्राकृत है ( महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः - काव्यादर्श) । सेतुबन्ध आदि महाकाव्य इसी भाषा में लिखे गये (भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. ७६-७७)। श्वेताम्बर सम्प्रदाय का कर्म साहित्य उसके कर्मप्रकृति, शतक, पञ्चसंग्रह षड्खण्डागम, पुस्तक १, प्रस्तावना, पृ० ३८. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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