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________________ ७२ ज्योतिष विषयक ग्रन्थों में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि अंगबाह्य ग्रन्थों के अतिरिक्त ठक्कुर फेरू का ज्योतिस्सार (९८ गा.) हरिभद्रसूरि की लग्गसुद्धि (१३३ गा.), रत्नशेखरसूरि (१५वीं शती) की दिणसुद्धि (१४४ गा.), हीरकलश (सं. १६२१) का ज्योतिस्सार (९०० दोहा) आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। निमित्तशास्त्र में भौम, उत्पात, स्वप्न, अंग, अन्तरिक्ष, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन आदि निमित्तों का अध्ययन किया गया है। किसी अज्ञात कवि का जयपाहुड (३७८ गा.), धरसेन का जोणिपाहुड, ऋषिपुत्र का निमित्तशास्त्र (१८७ गा.), दुर्गदेव (सं. १०८४) का रिट्ठसमुच्चय (२६१ गा.) आदि रचनायें प्रमुख हैं। अंगविज्जा एक अज्ञातकर्तृक रचना है जिसमें ६० अध्यायों में शुभाशुभ निमित्तों का वर्णन किया गया है। ९-१० वीं शती के पूर्व का यह ग्रन्थ सांस्कृतिक सामग्री से भरप हुआ है। करलक्खण (६१ गा.) भी किसी अज्ञात कवि की रचना है जिस लक्षण, रेखाओं आदि का वर्णन है। वास्तु शिल्प शास्त्र के रूप में ठक्कुर फेरू का वास्तुसार (९२८० गा. प्रतिष्ठित ग्रन्थ है जिसमें भूमिपरीक्षा, भूमिशोधन आदि पर विवेचन किया गय है। इसी कवि की एक अन्य कृति रत्नपरीक्षा (१३२ गा.) है जिसमें पद्मराग मुक्ता, विद्रुम आदि १६ प्रकार के रत्नों का उत्पत्ति-स्थान, आकार, वर्ण, गुण दोष आदि पर विचार किया गया है। उन्हीं की द्रव्यपरीक्षा (१४८ गा.) में सिक्का के मूल्य, तौल, नाप आदि पर, धातूत्पत्ति (५७ गा.) में पीतल, तांबा आdि धातुओं पर तथा भूगर्भप्रकाश में ताम्र, स्वर्ण आदि द्रव्य वाली पृथ्वी की विशेषता पर विशद् प्रकाश डाला गया है। ये सभी ग्रन्थ वि.सं. १३७२-७५ के बी रचे गये हैं। इस प्रकार प्राकृत भाषा और साहित्य के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हो जा है कि जैनाचार्यों ने उसकी हर विधा को समृद्ध किया है। प्रस्तुत अध्याय स्थानाभाव के कारण सभी का उल्लेख करना तो सम्भव नहीं हो सका। पर इत तो अवश्य कहा जा सकता है कि प्राकृत जैन साहित्य लगभग पच्चीस सौ व से साहित्य के हर क्षेत्र में अपने योगदान से हरा-भरा करता आ रहा है। प्राची साहित्य, इतिहास और संस्कृति का हर प्राङ्गण प्राकृत साहित्य का ऋणी। उसने लोकभाषा और लोकजीवन को अंगीकार कर उनकी समस्याओं के समाध/ की दिशा में आध्यात्मिक चेतना को जागृत किया। इतना ही नहीं, आधुनि साहित्य के लिए भी वह उपजीव्य बना हुआ है। प्रेमाख्यान काव्यों के विका, में प्राकृत जैन कथा साहित्य को भुलाया नहीं जा सकता। संस्कृत चम्पू अ चरित काव्य के प्रेरक प्राकृत ग्रन्थ ही हैं। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का सरस प्रतिपाद Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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