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रचे हैं। कहीं राजा, मन्त्री, अथवा श्रेष्ठी नायक हैं तो कहीं सन्त महात्मा के जीवन को काव्य के लिए चुना गया है। उनकी दिविजय, संघ-यात्रायें तथा अन्य प्रासंगिक वर्णनों में अतिशयोक्तियाँ भी झलकती हैं। वहाँ काल्पनिक चित्रण भी उभरकर सामने आये हैं। ऐसे स्थलों पर इतिहासवेत्ता को पूरी सावधानी के साथ सामग्री का चयन करना अपेक्षित है। हेमचन्द्रसूरि का द्वाश्रयमहाकाव्य चौलुक्यवंशीय नरेश कुमारपाल के चरित का ऐसा ही चित्रण करता है। इस ग्रन्थ को पढ़कर भट्टिकाव्य, राजतरंगिणी तथा विक्रमांकदेवचरित जैसे ग्रन्थ स्मृति - पथ में आने लगते हैं।
इतिहास के निर्माण में प्रशस्तियों और अभिलेखों का भी महत्त्व होता है। श्रीचन्द्रसूरि के मुनिसुव्वयसामिचरिय (सं० ११९३ ) की १०० गाथाओंकी प्रशस्ति में संघ, शाकम्भरी नरेश पृथ्वीराज, सौराष्ट्र नरेश खेंगार आदि का वर्णन है। साहित्य जहाँ मौन हो जाता है वहाँ अभिलेख के रूप में बारली ( अजमेर से ३२ मील दूर) में प्राप्त पाषाणस्तम्भ पर खुदी चार पंक्तियाँ हैं जिनमें वीरनिर्वाण संवत् ८४ उत्कीर्ण है। अशोक के लेख - इसके बाद के हैं। उनमें भी प्राकृष् के विविध रूप दिखाई देते है। सम्राट् खारवेल का हाथी गुम्फा शिलालेख, मथुर और प्रभोसा से प्राप्त शिलालेख तथा घटियाला (जोधपुर) का शिलालेख (सं ९१८) इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। मूर्ति लेख भी प्राकृत में मिलते हैं । ।
नाटकों का समावेश दृश्यकाव्य के रूप में होता है। इसमें संवाद, संगीत नृत्य और अभिनय संनिहित होता है । संस्कृत नाटकों में साधारणतः स्त्रियाँ विदूषक तथा निम्नवर्ग के किंकर, धूर्त, विट, भूत, पिशाच आदि अधिकांश पात्र प्राकृत ही बोलते हैं। पूर्णतया प्राकृत में लिखा नाटक अभी तक उपलब् नहीं हुआ। नेमचन्द्रसूरि की सट्टककृति नयमंजरी अवश्य मिली है जो कर्पूरमञ्जर के अनुकरण पर रची गई है। इनमें प्राकृत के नाटकों और सट्टकों के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं।
कथा साहित्य
जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में विपुल कथा साहित्य का निर्माण किया है। उनका मुख्य उद्देश्य कर्म, दर्शन, संयम, तप, चारित्र, दान आदि के महत्त को स्पष्ट करना रहा है। आगम साहित्य इन कथाओं का मूल स्रोत है। आधुनि कथाओं के समान यहाँ वस्तु, पात्र, संवाद, देशकाल, शैली और उद्देश्य रूप में कथा के अंग भी मिलते हैं। निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि ग्रन्थ में उपलब्ध कथायें उत्तरकालीन विकास को इंगित करती हैं। यहाँ अपेक्षाकृत
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