________________
५२
का आधार लेकर संख्याक्रम सहस्र और कोटाकोटि तक पहुँची है। ठाणांग के समान यहाँ भी महावीर के बाद की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। उदाहरणत: १००वें सूत्र में गणधर इन्द्रभूति और सुधर्मा के निर्वाण से सम्बद्ध घटना। ठाणांग
और समवायांग की एक विशिष्ट शैली है, जिसके कारण इनके प्रकरणों में एकसूत्रता के स्थान पर विषयवैविध्य अधिक दिखाई देता है। इसमें भौगोलिक और सांस्कृतिक सामग्री भरी हुई है। इनकी शैली अंगुत्तरनिकाय और पुग्गलपण्णत्ति की शैली से मिलती-जुलती है। ५. वियाहपण्णत्ति
ग्रन्थ की विशालता और उपयोगिता के कारण इसे 'भगवतीसूत्र' भी कह जाता है। इसमें गणधर गौतम के ६००० प्रश्न और महावीर के उत्तर निबद्ध हैं। अधिकांश प्रश्न स्वर्ग, नरक, चन्द्र, सूर्य आदि से सम्बद्ध हैं। इसमें ४१ शतक हैं जिनमें ८३७ सूत्र हैं। प्रथम शतक अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आगे के शतक इसी की व्याख्या करते हए दिखाई देते हैं। यहाँ मक्खलि गोसाल का विस्तृत चरित भी मिलता है। बुद्ध को छोड़कर पार्श्वनाथ और महावीर के समकालीन आचार्य और परिव्राजक, पार्श्वनाथ और महावीर का परम्पराभेद, स्वप्नप्रकार, जवणिज्ज (यापनीय) संघ, वैशाली में हुए दो महायुद्ध, वनस्पतिशास्त्र, जीव प्रकार आदि के विषय में यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण जानकारी देता है। इसमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित नन्दिसूत्र का भी उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि इस महाग्रन्थ में महावीर के बाद की लगभग एक हजार वर्ष की परम्पराओं का संकलन है। इसकी विषय-सूची भी बड़ी लम्बी-चौड़ी है। इसमें गद्यसूत्र ५२९३ और पद्यसूत्र १६० हैं। ६. नायाधम्मकहाओ
इसमें भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट लोकप्रचलित धर्मकथाओं का निबन्ध है, जिसमें संयम, तप, त्याग आदि का महत्त्व बताया गया है। इस ग्रन्थ । दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में नीति कथाओं से सम्बद्ध उन्नीस अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में धर्मकथायें संकलित हैं। शैली रोचव
और आकर्षक है। इसमें मेघकुमार, धन्ना और विजय चोर, सागरदत्त और जिनदत्त कच्छप और शृंगाल, शैलक मुनि और शुक परिव्राजक, तुम्ब, रोहणी, मल्लि भाकंदी, दुर्दर, अमात्य तेमलि, द्रौपदी, पुण्डरीक, कुण्डरीक, गजसुकुमाल, नन्दमणियार आदि की कथायें संकलित हैं। ये कथायें घटना प्रधान तथा नाटकीय तत्त्वों से आपर हैं। सांस्कृतिक महत्त्व की सामग्री भी इसमें सन्निहित हैं।
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org