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________________ ४० अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनुसंस्कृतादीनि। पाणिन्यादिव्याकरणोटि शब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृत-मुच्यते-नमिसाधु ii) सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुदं चिय णेति सायराओ च्चिय जलाई।। - वाक्पतिराज iii) यद् योनिः किल संस्कृतस्य सुदशां जिह्वासु यन्मोदते - राजशेखर। उपर्युक्त दोनों पक्षों का विश्लेषण हम इस प्रकार कर सकते हैं कि प्राकृ वस्तुत: जनबोली थी, जिसे उत्तर काल में संस्कृत के माध्यम से समझने-समझा का प्रयत्न किया गया। प्राकृत भाषा के समानान्तर वैदिक संस्कृत अथवा छान्दर भाषा थी, जिसका साहित्यिक रूप ऋग्वेद और अथर्ववेद में विशेष रूप से दृष्टव है। यास्क ने इसी पर निरुक्त लिखा और पाणिनि ने इसी को परिष्कृत किया विडम्बना यह है कि प्राकृत के प्राथमिक रूप को दिग्दर्शित कराने वाला कोई साहित्य उपलब्ध नहीं जिसके आधार पर उसकी वास्तविक स्थिति समझी ज सके। हाँ, यह अवश्य है कि प्राकृत के कुछ मूल शब्दों को वैदिक संस्कृत में प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से समझा जा सकता है। वैदिक रूप विकृत, किंकृत, निकृत, दन्द्र, अन्द्र, प्रथ्, अर्थ, क्षुद्र क्रमश: प्राकृत के विकट, कीकट, निकट, दण्ड, अण्ड, पट, घट, क्षुल्ल रूप थे जो धीरे-धीरे जनभाषा से वैदिक साहित्य में पहुंच गये। इन शब्दों और ध्वनियों से यह कथन अतार्किक नहीं होगा वि प्राकृत जनबोली थी जिसे परिष्कृत कर छान्दस् भाषा का निर्माण किया गया। जनबोली का ही विकास उत्तरकाल में पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिव भारतीय भाषाओं के रूप में हुआ तथा छान्दस् भाषा को पाणिनि ने परिष्कृत कर लौकिक संस्कृत का रूप दिया। साधारणत: लौकिक संस्कृत में तो परिवर्तन नहीं हो पाया पर प्राकृत जनबोली सदैव परिवर्तित अथवा विकसित होती रही। संस्कृत भाषा को शिक्षित और उच्चवर्ग ने अपनाया तथा प्राकृत सामान्य समाज की अभिव्यक्ति का साधन बनी रही। यही कारण है कि संस्कृत नाटकों में सामान्य जनों से प्राकृत में ही वार्तालाप कराया गया है। डॉ० पिशल ने होइफर, नास्सन, याकोबी, भण्डारकर आदि विद्वानों के इस मत का सयुक्तिक खण्डन किया है कि प्राकृत का मूल केवल संस्कृत है। उन्होंने सेनार से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि प्राकृत भाषाओं की जड़ें जनता की बोलियों के भीतर जमी हुई हैं और उनके मुख्य तत्त्व आदि काल में जीती-जागती और बोली जाने वाली भाषा से लिये गये हैं; किन्तु बोलचाल की वे भाषायें, जो बाद में साहित्यिक भाषाओं के पद पर चढ़ गईं, संस्कृत की भाँति ही बहुत Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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