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________________ ३८ है। छान्दस् में ळ ध्वनि प्राकृत से पहुँची हुई है। वैदिक और परवर्ती संस्कृत में न के स्थान पर ण हो जाना (जैसे फण, पुण्य, निपुण आदि) तथा रेफ के स्थान पर ल हो जाना जैसी प्रवृत्तियाँ भी प्राकृत के प्रभाव की दिग्दर्शिका हैं। प्राकृत और छान्दस् भाषा प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियों की ओर दृष्टिपात करने पर ऐसा लगता है कि उसका विकास प्राचीन आर्यभाषा छान्दस् से हुआ है, जो उस समय की जनभाषा रही होगी। जनभाषा के रूपों को अलग कर छान्दस् का निर्माण हुआ होगा, जो कुछ शेष रह गये उनका उत्तर काल में विकास होता रहा। प्राकृत और वैदिक भाषाओं की तुलना करने पर यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है - i) प्राकृत में व्यञ्जन्नान्त शब्दों का प्रयोग प्राय: नहीं होता, परन्तु वैदिक भाषा में वह कहीं होता है और कहीं नहीं भी होता।। ii) प्राकृत में विजातीय स्वरों का लोप हो जाता है और पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर को दीर्घ हो जाता है। जैसे - निश्वास का नीसास। वैदिक संस्कृत में भी यह प्रवृत्ति मिलती है। जैसे – दुर्नाश का दूर्णाश। iii) स्वरभक्ति का समान प्रयोग मिलता है। प्राकृत में स्व को सुव होता है तो वैदिक संस्कृत में भी तन्व: का तनुवः मिलता है। iv) प्राकृत में तृतीया का बहुवचन देवेहि मिलता है, तो वैदिक संस्कृत में भी देवेभि मिलता है। प्रारम्भ में ही प्राकृत में ऋ का इ, अ, ड आदि ध्वनियों में परिवर्तन हआ जो वैदिक साहित्य में श्रिणोति, शिथिर आदि रूपों में देखा जाता है। छान्दस् और प्राकृत भाषा की तुलना करने पर यह तथ्य सामने आता है कि उसके पूर्व की जनभाषा प्राकृत थी जिससे छान्दस् साहित्यिक भाषा का विकास हुआ। छान्दस् साहित्यिक भाषा को ही परिमार्जित कर संस्कृत भाषा का रूप सामने आया। परिमार्जित करने के बावजूद छान्दस् में जो शेष तत्त्व थे उनका विकास होता गया और उसी ने प्राकृत का रूप लिया। छान्दस् से प्राकृत और संस्कृत, दोनों भाषाओं की उत्पत्ति होने पर भी संस्कृत भाषा नियमों और उपनियमों में बंध गई, पर प्राकृत को जनभाषा रहने के कारण बांधा नहीं जा सका। इस दृष्टि से प्राकृत को बहता नीर कहा गया है और संस्कृत को बद्ध सरोवर। प्राचीन प्राकृत से ही उत्तरकाल में मध्यकालीन प्राकृत का विकास हुआ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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