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मठों में भी यह चित्र परम्परा दिखाई देती है। यह परम्परा ११वीं शती तक अधिक लोकप्रिय रही। उसके बाद ताड़पत्रों पर चित्रांकन प्रारम्भ हो गया। मूडवद्री, पाटन आदि ग्रन्थ भण्डारों में यह चित्रांकन सुरक्षित है।
कर्गल (कागज) चित्र लगभग १४वीं शती के बाद अधिक मिलते हैं। पाण्डुलिपियों में कथाओं को चित्रांकित किया जाता था। कालकाचार्य कथा शान्तिनाथचरित, सुपासनाहचरिय, यशोधरचरित, कल्पसूत्र आदि को चित्रों में बांधा गया है। इस चित्रांकन में समृद्धि शैली, तैमूर चित्र शैली आदि का उपयोग हुआ है। इनमें रंगयोजना, विविध मुद्रायें, वेश-भूषा तथा स्थापत्य की अनेक परम्पराओं का अंकन हुआ है।
काष्ठ चित्र पाण्डुलिपियों पर लगे काष्ठफलकों पर बनाये जाते थे। इन पर विद्यादेवियों, तीर्थङ्करों और पशु-पक्षियों तथा मानवाकृतियों का अंकन किया जाता था। राजस्थान और गुजरात में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार पटचित्र और धूलिचित्र के भी उल्लेख साहित्य में मिलते हैं ।
चित्रकला के इन विविध रूपों में जैन साधकों ने अपनी धार्मिक भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति की है। उसके माध्यम से अन्तर्वृत्तियों का उद्घाटन, मनोदशाओं का अभिव्यञ्जन तथा रूप-भावना और आकृति - सौन्दर्य का चित्रण बड़ी सफलतापूर्वक हुआ है । १
(१५) एकात्मकता और राष्ट्रीयता
जैन संस्कृति में एकात्मकता और राष्ट्रीयता को उतना ही महत्त्व दिया गया है जितना चरित्र को। धर्म और संस्कृति परस्पर गुथे हुए अविच्छिन्न अंग हैं। उनकी सांस्कृतिकता व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र की एक अजीब नब्ज हुआ करती है जिसकी धड़कन को देख-समझकर उसकी त्रैकालिक स्थिति का अन्दाज लग जाता है। हमारी भारतीय संस्कृति में उतार-चढ़ाव और उत्थान - पतन आये पर सांस्कृतिक एकता कभी विच्छिन्न नहीं हो सकी। उसमें एकात्मकता के स्वर सदैव मुखरित होते रहे। इतिहास के उदय काल से लेकर आज तक इस वैशिष्ट्य को जैन संस्कृति सहेजे हुये है ।
राष्ट्र एक सुन्दर मनमोहक शरीर है। उसके अनेक अंगोपांग है जिनकी प्रकृति और विषय भिन्न-भिन्न हैं। अपनी सीमा से उनका बन्धत्व है,
लगाव है
१. विशेष जानकारी के लिए देखिये - लेखक का ग्रन्थ 'जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास', नागपुर विश्वविद्यालय, १९७७.
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