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________________ घम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो। देवा पि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो।। - दशवैकालिक, १.१ संजमु सीलु सउज्जु तवु सूरि हि गुरु सोई। दाहक-छेदक-संधायकसु उत्तम कंचणु होई।। - भावपाहुड १४३ __ पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन निषेध, देवदर्शन, अष्टमूलगुणों का परिपालन, निर्व्यसनी जीवन, समन्वयात्मक दृष्टि आदि कुछ ऐसे नियमों का विधान इसीलिए किया गया है कि साधक अहिंसक और संयमी बनकर अहिंसक समाज की रचना कर सके। ___ जीवन का सर्वाङ्गीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। सूत्रकृतांग (१८.६) में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है, किन्तु भय की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यंग प्रच्छन्न कर लेता है और भय-विमुक्त होने पर पुन: अंग-प्रत्यंग फैलाकर चलना-फिरना प्रारम्भ कर देता है। उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कतापूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान में ही गोपन कर लेता है। मैत्री, करुणा, मुदिता और माध्यस्थ भाव समभाव की परिधि में आते हैं। समभावी व्यक्ति समाचारिता का पालक और सर्वोदयशीलता का धारक होता है। अध्यात्म का सम्बन्ध अनुभूति से है और हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध अध्यवसाय -संकल्प से है। अध्यात्म और संकल्प से आस्था की सृष्टि होती है जिससे मानसिक दुर्बलता से भरी विलासिता समाप्त हो जाती है, स्वार्थ और अहिंसा का विसर्जन हो जाता है, परिशोधन और पवित्रता के आन्दोलन से वह जुड़ जाता है। वह भोग में भी योग खोज लेता है। जैन संस्कृति मूलत: अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्ग्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। मूर्छा परिग्रह का पर्यायार्थक है। यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय आदि भाव अन्तरंग परिग्रह हैं और धन-धन्यादि बाह्य परिग्रह का मूल साधन हिंसा है। झूठ, चोरी, कुशील Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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