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________________ १५ धर्म के इस गुणात्मक स्वरूप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं - १. धम्मो दयाविसुद्धो - बोध पाहुड, २५ नियमसार व ६. वरांगचारित १५-१०७, कार्तिकेया ९७. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो - दशवैकालिक सूत्र, १.१, तत्त्वार्थवार्तिक, ६.१३.५. सर्वार्थसिद्धि, ६.१३. जीवाणं रक्खणं धम्मो कार्तिकेया. ४७८. ३. क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः - तत्त्वार्थसार, ६.४२, भावसंग्रह, ३०६, तत्त्वार्थवृत्ति, श्रुत. ६-१३; ३. धर्मसं.श्रा.. १०-९९ आदि धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है, गुण भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है। क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा एक निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती है। अतः विधिपरक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेयात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा। हिंसा का मूल कारण है --- प्रमाद और कषाय। १ उसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भाव प्राणों का हनन होता है। कषायादिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य प्राणों का हनन होता है। इसके अतिरिक्त दूसरे को मर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यपरोपण भी इन्हीं भावों का कारण है। इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना-फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना चाहिए इसका विधान मूलाचार, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूयेसु संजमो।२ उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं। मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलीन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगड़ना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है - १. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३. २. दशवैकालिकसूत्र, ६.९. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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