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________________ ८५ की निष्ठुरता नहीं पिघलती। इस निष्ठुरता से वे कभी-कभी ठगे भी जाते हैं। सुनार लिसान को ठगता है और किसान कंकड़ वाला घी देकर सुनार को ठग लेता है। यदि मनोबल को बढ़ाकर अपने अस्तित्व का बोध हो जाये तो लोभी की लोभ प्रवृत्ति कम होगी, कषाय भाव घटेगा और चारित्रिक विशुद्धि बढ़ेगी। उसे पाप का बाप "लोभ" समझ में आ जायेगा। उसे यह भी ध्यान में आ जायेगा कि सिकन्दर जैसे व्यक्ति ने अपने हाथ अर्थी के बाहर क्यों निकलवाये थे? लोभी की ईर्ष्या प्रवृत्ति भी स्वभावतः कम हो जायेगी। वह फिर देव से ऐसा वरदान नहीं माँगेगा कि वह सब कुछ सोना हो जाय जिसे भी वह छुए। देह की अपवित्रता, क्षणभंगुरता और आत्मा की पवित्रता और शाश्वतता पर चिन्तन करने से शौच-धर्म की अनुभूति गहरी होती है, जोंक जैसी प्रवृत्ति कम होती है तथा समता और सन्तोष जैसे विधायक भाव प्रवाहित होने लगते हैं। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का चिन्तन साधक को धार्मिक चेतना की ओर ले जाता है। ऋजुता भाव के गहराने पर मनुष्य जन्म की दुर्लभता भी स्पष्ट हो जाती है। दुनियाँ में मनुष्य के बराबर विकसित प्राणी कोई भी दसरा नहीं है। जो विवेक उसे मिला है. वह किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। तीर्थङ्कर महावीर ने इसीलिए यह कहा है कि संसार में चार वस्तुएं बड़ी दुर्लभ हैं – मनुष्यत्व, शुचिता, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ - चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं।। यहाँ सुई शब्द का अर्थ शुचि और श्रुति दोनों हो सकते हैं। मन का पवित्र होना ही शुचिता है, जो लगातार धर्मश्रवण और धर्माराधना से मिल पाती है। शुचिता के लिए यह आवश्यक है कि साधक दूसरे प्राणी को भी अपने जैसा समझे। उसके मन में दूसरे के प्रति दयाभाव रहे। यह दयाभाव जितना पर के लिए है उतना ही स्व के लिए भी है। चींटा, पशु-पक्षी हम भी हुए होंगे पूर्व जन्मों में। हम भी इसी तरह अपने प्राणों को बचाने के लिए भागते रहे होंगे। अब चूँकि हमारे पास विवेक अधिक है, हमें इस तथ्य को समझना चाहिए कि इन सभी प्राणियों में हमारी जैसी ही चेतना है, पर उस चेतना का वह विकसित रूप नहीं है जो हमारे पास है। अतः हमें उन पर दयाभाव रखना चाहिए। मनुष्य हुए और मनुष्यता न रही तो हमारा जन्म ही निरर्थक हो जायेगा। यह मनुष्यता ही शुचिता है। इसी से व्यक्ति का मन धर्मश्रवण की ओर पलटता है। यहाँ धर्मश्रवण सभी से नहीं है। यहाँ तो धर्मश्रवण उससे हो जो स्वयं वीतरागी बन गया हो। वीतरागी व्यक्ति से धर्म की व्याख्या सुनना इसलिए अधिक सार्थक होता Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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