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________________ ८४ विरोधी भाव लोभ है जो देवगति में सर्वाधिक होता है। रूपादि का लोभ भी यहीं अभिव्यक्त होता है। हम जानते हैं, बारहवें गुणस्थान तक लोभ रहता है। यह लोभ जीवन में न जाने कितने संघर्ष का कारण होता है। लोभ का कारण मन में निर्धनता का घर बन जाना होता है । मानसिक निर्धनता आर्थिक निर्धनता से कहीं अधिक खतरनाक होती है। आलस्य के कारण वह और भी पनपती चली जाती है। जापानियों ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण से कहा था कि भारत तो समृद्ध देश होना चाहिए, क्योंकि यहां लोग आराम से बैठे-बैठे चिलम पीते रहते हैं। उन्हें नहीं मालूम था कि यह समृद्धि का नहीं, बल्कि अकर्मण्यता और निर्धनता का कारण है। लोभी का यह स्वभाव है कि वह हर चीज को अकेले ही उपभोग में लाना चाहता है । प्रसेनजित ने श्रेणिक को एक लम्बी परीक्षा के बाद अपना उत्तराधिकारी बनाया। उन्होंने अपने पुत्रों को भोजन करने बैठाया और इधर कुत्तों को छोड़ दिया। श्रेणिक को छोड़कर सभी पुत्र तो उठकर भाग गये पर श्रेणिक ने कुत्तों को टुकड़े डाल-डाल कर भोजन कर लिया। सच यही है कि दूसरों को खिलाकर ही खाया जा सकता है। लोभी बाह्य परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकता और घुटने टेके बिना ही निर्णय लेता है। चेतना में दोनों तत्त्व होते हैं— कुरूपता और स्वरूपता । उनकी पहचान हमारी मानसिकता के आधार पर होती है। तदनुसार कुरूपवान् स्वरूपवान् हो सकता है और सुरूपवान् कुरूपवान् हो सकता है। वस्तुतः ज्ञान पदार्थनिष्ठ न होकर स्वनिष्ठ होना चाहिए। लोभ के साथ हिंसा का जन्म होता ही है। अपने इष्ट पदार्थ के संरक्षण के लिए हिंसा एक अनिवार्य तथ्य है। लोभी व्यक्ति का मानस पदार्थ की अस्वीकृति की ओर नहीं जाता। पदार्थ अनावश्यक भी होगा तो भी उसे वह जोड़ता रहेगा। इस मानसिकता की स्थिति को उस स्थिति से तुलना कीजिए जब कोई भोजनभट्ट किसी सुस्वादु भोजन को पेट की हालत को सोचे बिना ही खाता चला जाता है। मिलावट की प्रवृत्ति के पीछे भी लोभ ही कारण रहता है। दवा में मिलावट करने वाला, उसी मिलावट भरी दवा के उपयोग से यदि अपने परिवार के सदस्य को खो डाले, तो उसकी विकृतियां उसे समझ में आ सकती हैं। पर लोभी की चेतना पर परदा पड़ा रहता है। वह उसके फल की ओर से वेसुध रहता है। यह अनैतिकता धनिक वर्ग में होती है। निर्धन के पास तो ऐसे साधन ही नहीं होते। इस क्रूरता का प्रकोप भी संग्रहवृत्ति के कारण धनिकों में ही अधिक देखी जाती है। लोभ के कारण उनका हृदय निष्ठुर हो जाता है। प्रेमपूर्ण भावना से पौधे भी प्रसन्न हो जाते हैं, पर धनिकों Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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