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________________ ७४ है। क्रोधी क्रोध निमित्तक पदार्थ को नष्ट करना चाहता है, पर मानी उसे सम्भाल कर रखना चाहता है। अहङ्कार से मुक्त होने के उपाय ___ इस आत्मघाती अहङ्कार को समाप्त करने के लिए धर्म ही एक सच्चा शरण है। क्षान्ति, मृदुता, ऋजुता और आत्मालोचन उसके द्वार हैं। देहादि में एकत्व बृद्धि छोड़कर, तोड़कर समता भरा आचरण उसका एक सुनियोजित महापथ है, जिस पर चलकर व्यक्ति अहङ्कार से मुक्त हो सकता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार (पञ्च परमेष्ठी वंदन) रूप विनय का आचरण उसे रूपान्तरित कर सकता है। ____ अहङ्कार से ग्रस्त व्यक्ति किसी को गुरु मानने के लिए तैयार नहीं होता, जिससे न वह कछ विशेष सीख पाता है और न उसमें विनय ही जाग्रत हो पाता है। शिष्य भाव के बिना सीखना सम्भव नहीं होता। गुरजियेफ ने अपने शिष्य आस्पस्की को एक कोरा कागज लिखने के लिए दिया परीक्षा करने की दृष्टि से, पर उसने उसे कोरा ही वापिस कर दिया। अहङ्कार का विसर्जन और ज्ञानार्जन की आकांक्षा कागज को वापिस करने के पीछे एक दृष्टि थी। मार्दव-धर्म का परिपालन करने के लिए कषायों पर विजय प्राप्त करना जरुरी हो जाता है। शान्तिनाथ नाम हो और वह व्यक्ति घनघोर अशान्त और क्रोधी प्रकृति का हो तो नाम के साथ सामञ्जस्य कैसे हो सकता हैं? अत: कषायों के परिणाम पर चिन्तन करते हुए मृदुता लानी चाहिए। बिना भेदभाव के आदर देना विनय कहलाता है। जीसस ने जुदास को सम्मान दिया, जबकि वह शत्रुओं से मिला हुआ था। महावीर ने गोशालक को सम्मान दिया, जबकि गोशालक महावीर का घोर विरोधी था। विरोधियों के साथ भी मित्रवत् व्यवहार करना आर्जव-धर्म है। मान उबलता दूध जैसा है जिसे ठण्डा होने पर ही पिया जा सकता है। उसे या तो चूल्हे से उतार कर नीचे रख दीजिए या ईंधन को बुझा दीजिए। इसी तरह मान के कारणों को दूर कर आत्मचिन्तन किया जाना चाहिए। मान को जीतने का एक यह भी उपाय है कि साधक माध्यस्थ वृत्ति धारण कर . विपरीत परिस्थितियों में मौन हो जाये। द्वीपायन ऋषि एक अच्छे साधक थे। वे जहां तपस्या कर रहे थे, वहाँ यादव लोग शराब पीकर मस्ती कर रहे थे। उन्होंने द्वीपायन को भला-बुरा कहा। साधक के कान में ये शब्द पहुँचे, जिसे वे सहन नहीं कर पाये और अपनी उग्र तपस्या के बल पर द्वीपायन ने द्वारिका जला कर राख कर दी। यदि उन्होंने अपशब्दों की उपेक्षा की होती तो इतना बड़ा हादसा नहीं होता। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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