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________________ नीचे गिरना पड़ता है। उसे कोई होश ही नहीं रहता कि वह क्रोध क्यों करता है? क्रोध और क्रोधी दोनों अलग-अलग हैं। क्रोधी पहले स्वयं को दुःखी करता है और बाद में दूसरे को। असन्तोष, असफलता, अभाव, प्रतिकूलता, कल्पित व्यवहार आदि और भी अनेक कारण हैं जिनसे क्रोध उत्पन्न हो जाता है। क्रोध के भयङ्कर रूप को समझा जा सकता है उन कथाओं के माध्यम से जहाँ कहा गया है कि सोमिल ब्राह्मण ने गज सुकुमाल मुनि के सिर पर अंगार रखा था और चण्डकौशिक सर्प के जीव ने महावीर को काटा था। क्रोध हमको कुछ देता नहीं, बल्कि हमसे कुछ छीन लेता है। जितने भी विकार भाव हैं। वे हमें थकाने वाले होते हैं। उनके आने पर हम थकान का अनुभव करते - हैं, पर करुणादि भाव से व्यक्ति थकता नहीं, बल्कि प्रसन्नता का अनुभव करता है। कहा जाता है— क्रोध में होश होना चाहिए। पर साधारणत: क्रोध में होश चला जाता है। होना यह चाहिए कि जब क्रोध चरम स्थिति पर हो, तब रुक जाना चाहिए। खलीफा अली युद्ध के मैदान पर लड़ रहा था। शत्रु को उसने नीचे गिरा दिया और उस पर जैसे ही भाला चलाने वाला था कि शत्रु ने उस पर थूक दिया। उसने थूक को पोंछा और कहा कि अब उठो, कल लड़ेंगे। शत्रु ने कहा – क्यों ? अली का उत्तर था - मुहम्मद की आज्ञा है - अगर हिंसा भी करो तो क्रोध में नहीं करना। तुमने थूककर मुझमें क्रोध की अग्नि भभका दी। ऐसी स्थिति में मैं हिंसा नहीं कर सकता। क्रोध टिकाऊ न हो। ऐसा न हो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहे। एक मुकदमा शुरु करे और वह चार पीढ़ी तक भी समाप्त न हो। क्रोध हो भी तो उसकी केतली का ढक्कन खुला रहे, बन्द न हो ताकि उबाल न आ सके। अनन्तानुबन्धी क्रोध दुःख के महासागर में गिरने का कारण बनता है। क्रोध को दूर करने के उपाय क्रोध बेहोशी में ही होता है। होश रहते क्रोध हो ही नहीं सकता। क्रोधरूपी महाशत्रु से मुक्त होने के लिए विद्वानों द्वारा कुछ मार्ग इस प्रकार सुझाये गये हैं - (१) आत्मपरीक्षण, उपवास, कायोत्सर्ग, प्रतिसंलीनता और त्रिगुप्ति परिपालन से व्यक्ति सम्भल जाता है, आत्मचिन्तन होने से क्रोध की प्रकृति समझ में आ जाती है और आत्मपरीक्षण हो जाता है। (२) दूसरे की भूलों का स्मरण मत करो। ईसामसीह ने कहा था - पड़ोसी से मनमुटाव हो जाये और उसका स्मरण हो जाये, तो देव मन्दिर से भी वापिस आकर उससे क्षमा माँगो। बृहत्कल्पसूत्र में श्रमण से क्षमा याचना के बाद ही आहारचर्या करने का निर्देश दिया गया है, जिससे दूसरों की भूलों का विस्मरण Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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