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________________ अजितसेन, अनहितरिपु, देवसेन, शत्रुसेन, गजसुकुमार, सुमुख, दुर्मुख, कूपदारुक, दारुक, अनाधृष्टिकुमार, जालिकुमार, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, सत्यनेमि, दृष्टनेमि, पद्मावती, रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवन्ती, अर्जुनमाली, सुदर्शन, क्षेमक, धृतिधर, अतिमुक्तक, अलक्ष, नन्दा, नन्दवती, भद्रा, काली, महाकाली आदि। इन सभी साधक - साधिकाओं के धार्मिक जीवन के उदाहरण हमारे जीवन को पवित्र और मंगलमय बना देते हैं। अन्तगडसूत्र में इन सभी महापुरुषों की साधना का वर्णन मिलता है। गौतमकुमार और गजसुकुमार की जीवनसाधना को हम उदाहरण के रूप में उल्लिखित कर रहे हैं। ६१ गौतम कुमार की द्वारिका नगरी के राजा अंधकवृष्णि के पुत्र थे। प्रासादमयी सुख भोगते हुए एक दिन अरिष्टनेमि का प्रवचन सुना कि 'मा पडिबंध करेह' धर्म कार्य में विलम्ब मत करो, पड़े-पड़े समय व्यर्थ मत करो। बस, चिन्तन गहराया और माता-पिता की अनुमति लेकर जिनदीक्षा ग्रहण की। कठोर साधना की और भिक्षुप्रतिमा तथा संवत्सर तप करते हुए मोक्ष प्राप्त किया। यह सम्यक् तप की महिमा थी कि गौतम कुमार अष्टकर्मों का नाश कर अक्षय पद प्राप्त किया। २. गजसुकुमार श्रीकृष्ण की माता देवकी का प्रिय पुत्र था । देवकी के पुत्रों को हरिणैगमेषी देव सुलसा के पास छोड़ आता था और सुलसा के मृत पुत्रों को देवकी के पास रख देता था। सात पुत्रों का यही हाल रहा। तब श्रीकृष्ण द्वारा सन्तान प्रदाता हरिणैगमेषी की आराधना करने पर गजसुकुमार को पुत्रवत् पालने का अवसर देवकी को मिला। पर वह भी समय आने पर जिनदीक्षा की ओर मुड़ गया। देहासक्ति से दूर परम वीतरागी गजसुकुमार श्मशान आदि जैसे स्थानों पर ध्यानमग्न होने लगा। एक दिन सोमिल ब्राह्मण ने बदला लेने के लिए श्मशान में ध्यानस्थ गजसुकुमार के शिर पर दहकते अंगार रख दिये जिसकी तीव्र वेदना को प्रशान्त भाव से सहते हुए मुनिराज ने निर्वाण प्राप्त किया। अन्य साधकों की साधनामयी जीवनचर्या को समझने के लिए पाठक मूल ग्रन्थ को देखें। सन्दर्भ १. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, पन्द्रहवाँ अध्याय; कल्पसूत्र, १७ सुबोधिका टीका । २. ३. The Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, p. 25. श्रमण भगवान् महावीर, श्रमण, सितम्बर, १९७२, पृ० ६; और भी देखिए - चार तीर्थङ्कर - पं० सुखलाल जी, भगवान् महावीर - -- दलसुख मालवणिया, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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