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________________ ६० देती है। कोई भी सांसारिक व्यक्ति पदार्थ के सभी गुणों का वर्णन एक साथ नहीं कर सकता और फिर हर एक के विचारों में सत्यांश रहता ही है। उस सत्यांश का आदर करना, स्वीकार करना हमारा धर्म है। इसी को स्याद्वाद और अनेकान्तवाद कहा जाता है। जहाँ नय की विवक्षा से 'कथंचित' या 'स्यात्' का प्रयोग कर अपना विचार रखा जाता है। अनेकान्तवाद सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नयी दिशा-दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्हालकर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर, मजबूत और वैचारिक चेतना से सनी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में नया प्राण फूंक देता है। तब संघर्ष के स्वर बदल जाते हैं, समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिए, अपने वैयक्तिक एक पक्षीय विचारों की आहुति देने के लिए और निष्पक्षता, निर्वैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल धूसरित होने से बचाने के लिए। सदाचरण की फलश्रुति है सहयोग, सद्भाव, समन्वय और समताभाव। इन भावों पर आधारित हमारी जीवनशैली निश्चित ही सुसंस्कृत, संघर्षविहीन और निष्कंटक होगी। दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारना और निरहंकारी, सरल, अहिंसक और निरासक्त जीवन यापन करना आचरण की परिभाषा है। पर्युषणपर्व ऐसे ही सदाचरण की वकालत करता है और जीवन को नयी रोशनी से भर देता है। अन्तगड सूत्र कल्पसूत्र के वाचन में उत्तरकाल में कुछ शिथिलता आने लगी, पौरोहित्य बढ़ गया और आडम्बर ने अपना स्थान मजबूत कर लिया। सामाजिक और आध्यात्मिक नेताओं ने आत्मसिद्धि के साथ इस प्रवञ्चना को दूर करने की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। फलत: उनकी दृष्टि अन्तकृतदशांग पर जमी। अन्तकृद्दशांग में उन साधकों की चर्चा की गई है जिन्होंने संसार-सागर को पार करने के लिए अथक प्रयत्न किया और अन्त में निर्वाण प्राप्त किया। इस अंग में आठ वर्ग हैं और जिनमें ९० महान् साधकों का तपोमय जीवन वर्णित हुआ है। प्रथम वर्ग से पांचवें वर्ग तक में तीर्थङ्कर नेमिनाथ के युगीन साधकों का वर्णन है जैसे गौतम कुमार, गजसुकुमाल, जालि-मयाली, दृढ़नेमि, पद्मावती-सत्यभामा, रुक्मिणी, जांबवन्ती आदि और छठे अध्ययन से आठवें अध्ययन तक महावीरकालीन ३९ उग्र तपस्वियों के साधनामय जीवन को चित्रित किया गया है। उन तपस्वियों के कतिपय नाम हैं- गौतम, समुद्र, सगर, गम्भीर, स्तमित, अचल, कंपिल, अक्षोभ, प्रसेनजित, विष्णु, अक्षोभ, सागर, समुद्र, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र, अणीसेन, अनन्तसेन, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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