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९. आपकी कीर्ति त्रिलोक में व्याप्त होगी, और
१०. सिंहासनारूढ़ होकर आप लोग में धर्मोपदेश करेंगे।
जिस चतुर्थ स्वप्न का उत्तर निमित्तज्ञ उत्पल नहीं जान सका । उसका फल महावीर ने स्वयं बताया है कि मैं दो प्रकार के धर्म का कथन करूंगा — श्रावकधर्म और मुनिधर्म । इससे यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म को सुव्यवस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य महावीर की दृष्टि में था ।
निमित्तज्ञान : प्रभावात्मकता
२. साधक महावीर अस्थिग्राम में प्रथम वर्षावास समाप्त कर मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को मोराक सन्निवेश पहुँचे। वहाँ के नगर के बाहर के उद्यान में ठहरे। नगर में एक अच्छन्दक नामक पाखण्डी ज्योतिषी रहता था। उसकी आजीविका का साधन ज्योतिष ही था। उस समय निमित्तज्ञानी का बहुत आदर-सम्मान होता था। अच्छन्दक को जो प्रतिष्ठा मिली उसकी आड़ में उसने अनेक दुष्पाप करना प्रारम्भ कर दिये। महावीर के आध्यात्मिक तेज से सारी जनता इतनी अधिक प्रभावित हो गई कि अच्छन्दक के पाप भी शनैः-शनैः प्रगट हो गये। अब अच्छन्दक की आजीविका का साधन तिरोहित होने लगा । तब असहाय होकर वह महावीर के पास आया और कहने लगा- “यहाँ आपके उपस्थित रहने से मेरी आजीविका समाप्त - प्राय हो रही है। आप तो निःस्पृही हैं। यदि आप यहाँ से चले जावें तो मेरा कल्याण हो जावेगा । १३ अतः दयालु महावीर ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया और अन्यत्र ध्यानस्थ हो गये ।
चण्sशिक सर्प : एक दिशाबोध
मोराक सन्निवेश से महावीर सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदी के किनारे बसी वाचाला के उत्तरभाग की ओर चल पड़े। बीच में कनकखल आश्रम मिला। वहाँ ग्वालों महावीर को आगे बढ़ने से रोका और कहा कि आगे वन में चण्डकौशिक नाम दृष्टिविष भयंकर सर्प रहता है। वह किसी को भी देखते ही विष वमन करने लगता है। उसके विष वमन करने के कारण वन-वृक्ष भी सूखने लग गये हैं। महावीर ने ग्वालों की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया और वे आगे बढ़ते गये। उन्होंने सोचा कि इस चण्डकौशिक की अशुभ वृत्तियों को शुभ वृत्तियों की ओर मोड़ा जाना चाहिए।
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कहा जाता है, चण्डकौशिक अपने पूर्वजन्म में कठोर तपस्वी था। उसके पैर के नीचे एक बार एक मेंढकी दबकर मर गई जिसकी उसने प्रतिक्रमण करते समय आलोचना नहीं की । शिष्य द्वारा स्मरण कराये जाने पर वह क्रोधित होकर उसे मारने दौड़ा। पर बीच में ही एक स्तम्भ से शिर टकरा जाने पर वह तत्काल चल बसा और कनकखल आश्रम के कुलपति की पत्नी की कुक्षि से उसने जन्म लिया। बालक का
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