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________________ १७ हमारे कर्म और भाव हमारे मन पर अव्यक्त रूप में संस्कार की रेखाएं निर्मित कर देते हैं और वही संस्कार पुनर्जन्म के कारण बनते हैं। तथागत बुद्ध ने तो उदान में पांच सौ जन्मों तक संस्कारों के प्रभाव की बात स्वीकार की है। इन भावों का एक आभामण्डल बन जाता है और उसी के अनुसार हमारे भावी जन्म ग्रहण की प्रक्रिया शुरू होती है। महावीर की रूपान्तरण प्रक्रिया नयसार या सिंह पर्याय से प्रारम्भ होती है और महावीर तक आते-आते समाप्त हो जाती है। पर्युषण पर्व पर तीर्थङ्कर महावीर के जीवनचरित और उनके पूर्व भवों पर विशेष चर्चा की जाती है। इसके पीछे दो दृष्टिकोण मुख्यत: रहे हैं। पहला यह कि आत्मा के अस्तित्व के साथ ही कर्म के अस्तित्व की अवधारणा को स्वीकारना और दूसरा यह कि महावीर के चरित को सुनकर स्वयं की आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने का संकल्प करना। जीवन उत्थान-पतन की कहानी है। वह सुख-दुःख का समन्वित रूप है। सुख-दुःख के बीच नहीं रह पाता। सुख-दुःख में कार्य-कारण भाव का सम्बन्ध है। बिना कारण उनकी अवस्थिति नहीं मानी जा सकती है। सुख-दुःख की अवस्थिति का कारण ज्ञात होने पर व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरण आ सकता है और वह संसार की नश्वरता का चिन्तन करता हुआ अपना आचरण विशुद्ध बना सकता है। जीवन की विशुद्धता और सरलता सहजता की ओर ले जाना ही पर्युषण का मुख्य ध्येय है। तीर्थकर महावीर का अवतरण __इसी बिहार के वैशाली (वसाढ) नगर के समीपवर्ती कुण्डग्राम में महावीर का जन्म आज से ५९९ ई०पू० चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। यह वैशाली वज्जी गणतन्त्र की राजधानी थी। उनके पिता ज्ञातृकुलीय लिच्छवी क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे, जो इक्ष्वाकुवंशीय काश्यप गोत्री थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था जो विदेह राजा चेटक की पुत्री थी। मिथिला और विदेह का यह राजनीतिक सम्बन्ध कालान्तर में आध्यात्मिक सम्बन्ध से जुड़ गया। महावीर के जन्म होते ही राज्य में समृद्धि का युग आ गया इसलिए उनका नाम “वर्धमान'' रखा गया। ५ तेजस्वी बालक वर्धमान बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे। इसलिए उन्हें किसी आचार्य की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे बाल्यावस्था से ही बड़े शक्तिशाली और साहसी राजकुमार थे। लगभग आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक दिन खेलते-खेलते ही एक भयानक भीमकाय सर्प की पूंछ पकड़कर उसे बहुत दूर फेंक दिया। तब से उन्हें "महावीर" कहा जाने लगा।६ इसी तरह उनके जीवन के विविध प्रसंगों के कारण ही Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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