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________________ ऋषभदेव के पुत्र भरत और भरत की महिषी अनन्तमति के पुत्र मरीचि से किया गया है। महावीर के ऐसे तैतीस अथवा सत्ताईस प्रमुख भवों का वर्णन मिलता है-- (१) पुरुरवा अथवा नयसार ग्राम चिन्तक, (२) सौधर्मदेव, (३) मरीचि, (४) ब्रह्मस्वर्ग का देव, (५) जटिल अथवा कौशिक ब्राह्मण, (६) सौधर्म स्वर्ग का देव, (७) पृष्पमित्र ब्राह्मण, (८) अग्निद्योत अथवा अग्निसह ब्राह्मण, (९) सौधर्म स्वर्ग अथवा द्वितीयकल्प का देव, (१०) अग्निमित्र अथवा अग्निभूत ब्राह्मण, (११) महेन्द्रसागर का देव, (१२) भारद्वाज ब्राह्मण, (१३) माहेन्द्र स्वर्ग का देव, (१४) स्थावर ब्राह्मण, (१५) स्थावर ब्राह्मण, (१६)विश्वनन्दि अथवा विश्वभूति, (१७) महाशुक्र स्वर्ग का देव, (१८) त्रिपुष्ठ नारायण, (१९) सातवें नरक का नारकी, (२०) सिंह, (२१) प्रथम या चतुर्थ नरक का नारकी, (२२) प्रियमित्र चक्रवर्ती, (२३) महाशुक्र कल्प का देव, (२४) नन्दन या नन्दराज, (२५) लानत या प्राणत स्वर्ग का देव, (२६) देवानन्दा के गर्भ में, (२७) त्रिशला की कुक्षि से भगवान् महावीर। इस बीच हरिषेण, कनकोज्वल राजा, सहस्रार स्वर्ग आदि में भी महावीर की जीव ने जन्म ग्रहण किया था। इन भावों पर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जीव कभी धर्म धारण करने पर सौधर्म स्वर्ग के सुखों को भोगता है तो कभी कुमार्गगामी होकर सप्तम नरक के भी दारुण दुःखों को भोगता है। महावीर का जीव संसरण करता हुआ अपनी सिंह पर्याय में अजितंजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधन पाता है और नयसार के भव में मुनि को आहारदान और उनके पवित्र उपदेश से उसके जीवन में परिवर्तन आता है। उसके अन्तःकरण से क्रूरता का विषाक्त भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है और वह रौद्ररस के स्थान पर शान्तरस को ग्रहण कर लेता है। पुनः वह साधना से भटक भी जाता है किन्तु अन्त में पुनः प्रबुद्ध होकर अपना चरम विकास कर लेता है। पूर्व भव की परम्परा पर आज की प्रगतिशील पीढ़ी को भले ही विश्वास न हो पर यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं कि हमारी जन्म परम्परा हमारी कार्य परम्परा पर आधारित है। विश्व के लगभग सभी धर्म पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो आदि पाश्चात्य विचारक भी उस पर आस्था करते दिखाई देते हैं। 'रीइंकारनेशन' जैसी अनेक पुस्तकें भी सामने आयी है। अनेक वैज्ञानिक संस्थाएं इस तत्त्व पर शोध कर रही हैं। इसका सर्वप्रथम श्रेय रायबहादुर श्यामसुन्दरलाल को दिया जा सकता है जिन्होंने सन् १९२२-२३ में इस प्रकार की घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन प्रारम्भ किया। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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