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________________ तो यह निष्पत्ति हो सकती है कि उनके समय तक दोनों परम्परायें चल रही थीं। उत्तरकाल में कुन्दकुन्दाचार्य ने द्वादशानुप्रेक्षा (७० गाथा) में लाघव वाली परम्परा को छोड़कर क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म स्वीकार कर लिये। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा इन्हीं दश धर्मों को इसी क्रम में स्वीकार करती है। इन धर्मों के साथ श्वेताम्बर परम्परा में “साधु" अथवा "उत्तम” ये दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के लिए ठाणांग (५.४१) में 'साधु' और उत्तराध्ययन (९.५८) में 'उत्तम' विशेषण का प्रयोग हुआ है। पर दिगम्बर परम्परा में 'उत्तम' विशेषण का ही प्रयोग अधिक प्रचलित रहा है। वैसे दोनों शब्द लगभग समानार्थक हैं। यद्यपि ये धर्म मुख्यत: साधु वर्ग के लिए हैं (द्वादशानुप्रेक्षा, ६८)। पर यथाशक्ति श्रावकों द्वारा भी उनका पालन किया जाना चाहिए (पञ्चविंशति, ६.५९)। 'साधु' और 'उत्तम विशेषणों के पीछे आचार्यों का यही उद्देश्य रहा है कि साधक धर्माराधना में ख्याति, पूजा, सत्कार आदि का भाव न रखे, बल्कि निवृत्तिमार्ग में अपनी चेतना को अधिष्ठित किये रहे। (रा०वा०, ९.६.२६; उत्तरा०, ९.५८)। उपर्युक्त धर्मों की व्याख्या आचार्यों ने श्रावकों और साधुओं के लिए की है। इसी को अणव्रत और महाव्रत कहा जाता है। यह तो परम्परा रही ही है कि साधु श्रावक को पहले यतिधर्म का उपदेश दे और यदि वह उसकी शक्ति के बाहर दिखे तो फिर श्रावक धर्म की व्याख्या करे। अमृतचन्द्राचार्य ने इसी का पालन किया है। पर हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दुप्रकरण का प्रारम्भ ही श्रावक धर्म से किया है। अत: यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में ये दोनों पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं। पर्युषणकल्प का अर्थ . पर्युषण का अर्थ हम देख ही चुके हैं। पर्युषणकल्पसूत्र के अनुसार 'कल्प' शब्द का अर्थ है-आचार, मर्यादा अथवा सामाचारी। आचार्य उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण (पद्य, १४३) में इस शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिस कार्य या आचरण से ज्ञान, शील, तप आदि की वृद्धि हो और उनके विघातक दोषों का नाश हो वह कल्प कहलाता है - सज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं च दोषाणाम्। कल्पयति निश्चये यत् तत्कल्पमवसेयम्।। बृहत्कल्पसूत्र में दस कल्पों का वर्णन मिलता है - (१) आचेलक्य - अचेलकता, नग्नता अथवा अल्पवस्त्रता। इन्हें क्रमश: जिनकल्पी और स्थविरकल्पी श्रमण कहा जाता है। इन्हें अचेलक और सचेलक भी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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