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________________ पर्युषणकल्परूप को आठ या दस दिन का न होकर अठारह या बीस दिन का होना चाहिए। दशलक्षण धर्म की परम्परा समवायांगसूत्र, पंचशतकप्रकरण, भगवती आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थों में वर्षावास का सन्दर्भ पर्युषणकल्प के नाम से आया है और इस समय को अध्यात्म-साधना की दृष्टि से अधिक उपयुक्त बताया गया है। इसलिए दशलक्षणमूलक धर्म की आराधना के लिए आचार्यों ने इस महापर्व की स्थापना की है। तीर्थङ्कर महावीर भी वर्षावास करते रहे हैं। इसका उल्लेख जैन-बौद्ध आगमों में स्पष्ट रूप से मिलता है। दशलक्षण पर्व की स्थापना आगमों के आधार पर उत्तरकाल की देन है। कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा के बाद कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कदाचित् सर्वप्रथम इसका व्यवस्थित उल्लेख आता है। स्वामी कार्तिकेय ने आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण किया है। कुन्दकुन्द ने अनुप्रेक्षाधिकार में उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों का स्पष्ट उल्लेख किया है। स्थानाङ्ग (१०.१६) में भी धर्म के दश भेद किये गये हैं, पर वहाँ दूसरे क्रम पर मुक्ति और पांचवें क्रम पर लाघव का उल्लेख है; जबकि कुन्दकुन्द की परम्परा में इनके स्थान पर शौच और आकिश्चन्य धर्मों को नियोजित किया गया है। इन दोनों परम्पराओं में क्रम-व्यत्यय भी देखा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में 'सत्य' के स्थान पर शौच और शौच के स्थान पर 'सत्य' का प्रयोग हुआ है। इन सभी का आधार कदाचित् आचाराङ्ग (६.५) का वह सूत्र है, जिसमें कहा गया है- सभी को इन आठ धर्मों का उपदेश ग्रहण करना चाहिए -संति (क्षान्ति), विरतिं (विरति), उवसयं (उपशम), णिव्वाणं (निवृत्ति), सोयं (शौच), अज्जवियं (आर्जव), मद्दवियं (मार्दव) और लाघवियं (लाघव)। इसी परम्परा को उत्तरकाल में दश धर्मों के रूप में विकसित किया गया है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी के समान ही समवायांग और अन्तकृद्दशांगसूत्र में दश धर्मों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। प्रवचनसारोद्धार (५५४) में 'मुक्ति' के स्थान पर त्याग और आवश्यकचूर्णि (२.११६) में मुक्ति का उल्लेख है, पर वहाँ तप के स्थान पर 'त्याग' को समाहित किया गया है। इन उल्लेखों से लगता है मुक्ति, लाघव, त्याग और तप के आकलन में अन्तर अवश्य हुआ है। पर यह कोई विशेष अन्तर नहीं है। वे सब वस्तुत: एक-दूसरे से अत्यन्त सम्बद्ध हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन श्रमण धर्मों के क्रम में भी कुछ अन्तर रहा है। उदाहरण के तौर पर मूलाचार (७५२) में क्षमा, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप, संयम, आकिंचन, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ये दश धर्म गिनाये गये हैं। यहां शौच के स्थान पर लाघव को रखा गया है। इसका तात्पर्य है श्वेताम्बर परम्परा और मूलाचार परम्परा जुड़ी हुई रही है। मूलाचार को कुन्दकुन्द का ग्रन्थ यदि हम मान लें Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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